Friday, February 23, 2018

चर्चा प्लस ... खरीदी हुई भाषा व्यापार दे सकती है, संस्कार नहीं ... डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
चर्चा प्लस 

21 फरवरी : अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष

 
खरीदी हुई भाषा व्यापार दे सकती है, संस्कार नहीं
- डॉ. शरद सिंह

आज यदि हमारे संस्कार गड़बड़ा रहे हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि अपनी देशज़ भाषाओं की जड़ों में अंग्रेजी का मट्ठा डाल कर उसे सुखाने पर उतारू हैं। सच्चाई तो यह है कि नई पीढ़ी की माएं भी अपने बच्चों को उस भाषा में लोरी सुनाने का प्रयास करती हैं जो उन्हें अपनी मां से नहीं बल्कि अंग्रेजी स्कूलों से खरीद कर मिली है। जबकि याद रखा जाता चाहिए कि खरीदी हुई भाषा व्यापार दे सकती है, संस्कार नहीं। संस्कार तो मातृभाषा ही देती है।
21 फरवरी- अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष -  खरीदी हुई भाषा व्यापार दे सकती है, संस्कार नहीं - ...Lekh for Column - Charcha Plus by Dr Sharad Singh in Sagar Dinkar Dainik


इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः। - ऋग्वेद (1-13-9) में दिए गए इस श्लोक का भावार्थ है कि कि मातृभूमि, मातृसंस्कृति व मातृभाषा तीन देवियां हैं, इनकी उपासना करनी चाहिए, ये सुखदात्री है।
अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस प्रतिवर्ष 21 फरवरी को मनाया जाता है। 17 नवंबर 1999 को यूनेस्को ने इसे स्वीकृति दी। यूनेस्को द्वारा स्वीकृत इस दिवस का उद्देश्य भाषाई, सांस्कृतिक विविधा को बढ़ावा देना। मातृभाषा सामाजिक, पारिवारिक एवं जातीय संस्कारों की संवाहक होती है। बच्चा मां की गोद से ही भाषा का प्रथम ज्ञान प्राप्त करता है। लोरी और कहानियों के माध्यम से वह भाषा संस्कार यानी साहित्य से जुड़ता है। यही तथ्य इस बात को भी साबित करता है कि प्रत्येक वह साहित्य जो लेखक ने अपनी मातृभाषा में लिखा हो, अधिक प्रभावी होता है। जो साहित्य मातृभाषा में लिखा जाता है वही ज़मीन से जुड़ा हुआ होता है और पाठक के हृदय को सरलता से छूता है। यहां मातृभाषा अपनी विस्तृत परिभाषा के साथ प्रस्तुत होती है। एक ऐसे समुद्र की तरह जिसमें विभिन्न बोलियां समाहित होती हैं। बोली और भाषा में अंतर को ध्यान रखना जरूरी है। एक मातृभाषा में विभिन्न बोलियां होती हैं। बुंदेलखण्डी बोली है, न कि भाषा। यदि हमें इसे भाषा का दर्ज़ा दिलाना है तो इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हम बोली को भाषा का दर्ज़ा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। तभी हम सही दिशा में प्रयास कर सकेंगे। मान लेने और होने में बहुत अन्तर होता है। भोपाल में आयोजित दसवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ‘‘भारत में भाषाओं का अनमोल खजाना है, यदि इन्हें हिन्दी से जोड़ा जाए तो हमारी मातृभाषा और अधिक मजबूत होगी।’’

मातृभाषा में सीखना सरल होता है क्योंकि बच्चा उस भाषा से ही संवाद की ध्वनियों को पहचानना सीखता है। वह उसकी अपनी भाषा होती है। अपनी इस मौलिक मातृ भाषा के साथ ही वह पलता और बढ़ता है। अतः अपनी मातृभाषा को व्यवहार में लाना उसका पहला अधिकार होता है। परंतु हमारे देश में राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी कारणों से भाषा और मातृभाषा का सवाल उलझता ही चला गया। आज की कटु हकीकत यही है कि भाषाई साम्राज्यवाद के कारण अंग्रेजी प्रभु भाषा के रूप में स्थापित है और आज के प्रतिस्पर्धा और वैश्वीकरण के जमाने में हमने अंग्रेजी को मुक्तिद्वार मान लिया है। हम भूल जाते हैं कि भाषा सीखने का बना-बनाया आधार मातृभाषा होती है और उसके माध्यम से विचारों और कलेवर आदि को सीखना, समझना आसान होता है। ऐसा न कर हम शिशुओं का समय विषय को छोड़ कर अंग्रेजी सीखने में लगा देते हैं और उसके माध्यम से विषय को सीखना केवल अनुवाद की मानसिकता को ही बल देता है. साथ ही हर भाषा किसी न किसी संस्कृति और मूल्य व्यवस्था की वाहिका होती है। हम अंग्रेजी को अपना कर अपने आचरण और मूल्य व्यवस्था को भी बदलते हैं और इसी क्रम में अपनी सांस्कृतिक धरोहर को भी विस्मृत करते जा रहे हैं।
मातृभाषा बहुत पुराना शब्द नहीं है, मगर इसकी व्याख्या करते हुए लोग अक्सर इसे बहुत प्राचीन मान लेते हैं। हिन्दी का मातृभाषा शब्द दरअसल अंग्रेजी के मदरटंग मुहावरे का शाब्दिक अनुवाद है। जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। बच्चे का शैशव जहां बीतता है, उस माहौल में ही जननी भाव है। जिस परिवेश में वह गढ़ा जा रहा है, जिस भाषा के माध्यम से वह अन्य भाषाएं सीख रहा है, जहां विकसित-पल्लवित हो रहा है, वही महत्वपूर्ण है। उल्लेखनीय है कि मातृभाषा दिवस की संकल्पना बांग्लादेश के भाषा आंदोलन से उत्पन्न हुई। यूनेस्को द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस की घोषणा से बांग्लादेश के भाषा आन्दोलन दिवस को अन्तर्राष्ट्रीय स्वीकृति मिली, जो बांग्लादेश में सन् 1952 से मनाया जाता रहा है। संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने सन् 2008 को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित किया था।
मातृभाषा में सीखना सरल होता है क्योंकि बच्चा उस भाषा के साथ सांस लेता है और जीता है. वह उसकी अपनी भाषा होती है और उस भाषा को व्यवहार में लाना उसका मानव अधिकार है. परंतु भारत में राजनीतिक, आर्थिक और तकनीकी कारणों से भाषा और मातृभाषा का सवाल उलझता ही चला गया. आज की कटु सच्चाई यही है कि अंग्रेजों की गुलामी से हमने स्वयं को स्वतंत्र कर लिया लेकिन अंग्रेजी की गुलामी हम शान से कर रहे हैं। हम अपने परिवार के बच्चे पर दबाव डालते हैं कि वह अंग्रेजी में ‘पोएम’ सुनाए और जब वह सुना देता है तो हम गर्व से छलछला उठते हैं। दिक्कत यही है कि हम स्वयं अपनी मातृभाषा को हेय समझने लगते हैं। जबकि अब तक अनेक अध्ययनों से प्रमाणित हो चुका है कि जो बच्चे मातृभाषा में स्कूली शिक्षा ग्रहण करते हैं, वे अधिक सीखते हैं। बुनियादी शिक्षा मातृभाषा में हो और अंग्रेजी वैश्विक संपर्क-भाषा के रूप में ही रहे।
यूनेस्को द्वारा और अनेक देशों में हुए शोध से यह प्रमाणित है कि छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि, दूसरी भाषा की उपलब्धि, चिंतन की क्षमता, जानकारी को पचा कर समझ पाने की क्षमता, सृजनशक्ति और कल्पनाशीलता, इनसे उपजने वाला अपनी सामर्थ्य का बोध मातृभाषा के माध्यम से ही उपजता है। कुल मिलाकर मातृभाषा के माध्यम से सीखने का बौद्धिक विकास पर बहुआयामी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसे में मातृभाषा को आरंभिक शिक्षा का माध्यम न बनाना एक गंभीर सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौती है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। भारतीयों को अंग्रेजी भाषा भी सीखनी चाहिए, यह सोच महत्वपूर्ण थी। इसी मुकाम पर यह बात भी सामने आई कि विशिष्ट ज्ञान के लिए तो अंग्रेजी माध्यम बने मगर आम हिन्दुस्तानी को आधुनिक शिक्षा उनकी अपनी ज़बान में मिले। उसी युग में ‘मदर टंग’ जैसे शब्द का अनुवाद मातृभाषा के रूप में सामने आया।
गांधी जी के विचार शिक्षा के माध्यम के संदर्भ में स्पष्ट थे, वे बुनियादी शिक्षा मातृभाषा में दिए जाने के पक्ष में थे। वे अंग्रेजी भाषा को लादने को विद्यार्थी समाज के प्रति “कपटपूर्ण नीति“ समझते थे। उनका मानना था कि भारत में 90 प्रतिशत व्यक्ति चौदह वर्ष की आयु तक ही पढ़ते हैं, अतः मातृभाषा में ही अधिक से अधिक ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने 1909 ई. में “स्वराज्य“ में अपने विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाना है। गांधी जी विदेशी माध्यम के कटु विरोधी थे। उनका मानना था कि विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। यह देश के बच्चों को अपने ही घर में विदेशी बना देता है। उनका कथन था कि-‘‘यदि मुझे कुछ समय के लिए निरकुंश बना दिया जाए तो मैं विदेशी माध्यम को तुरन्त बन्द कर दूंगा।’’
गांधी जी के अनुसार विदेशी माध्यम का रोग बिना किसी देरी के तुरन्त रोक देना चाहिए। उनका मत था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती। उनके अनुसार, “गाय का दूध भी मां का दूध नहीं हो सकता।“ महामना मदनमोहन मालवीय के निमंत्रण पर गांधीजी बनारस पहुंचे। काशी नागरी प्रचारिणी सभा के बाईसवें वार्षिकोत्सव में भी शामिल हुए। कार्यक्रम में वायसराय भी शामिल हुए थे। दरभंगा के राजा सर रामेश्वर सिंह की अध्यक्षता में संपन्न समारोह में मालवीयजी के विशेष आग्रह पर गांधीजी ने भाषण दिया। गांधीजी ने कहा कि इस पवित्र नगर में, महान विद्यापीठ के प्रांगण में, अपने देशवासियों से एक विदेशी भाषा में बोलना शर्म की बात है। आशा प्रगट की कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को उनकी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने का प्रबंध किया जाएगा। गांधीजी ने वहां मौजूद लोगों से सवाल किया कि ‘‘क्या कोई स्वप्न में भी यह सोच सकता है कि अंगरेजी भविष्य में किसी भी दिन भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है?’’ श्रोताओं ने ‘‘नहीं, नहीं’ कह कर जवाब दिया।’’
आज यदि हमारे संस्कार गड़बड़ा रहे हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण यही है कि अपनी देशज़ भाषाओं की जड़ों में अंग्रेजी का मट्ठा डाल कर उसे सुखाने पर उतारू हैं। सच्चाई तो यह है कि नई पीढ़ी की माएं भी अपने बच्चों को उस भाषा में लोरी सुनाने का प्रयास करती हैं जो उन्हें अपनी मां से नहीं बल्कि अंग्रेजी स्कूलों से खरीद कर मिली है। जबकि याद रखा जाता चाहिए कि खरीदी हुई भाषा व्यापार दे सकती है, संस्कार नहीं। संस्कार तो मातृभाषा ही देती है।
इसी संदर्भ में मेरी ये काव्य पंक्तियां देखें -
मातृभाषा से हमें गौरव मिले, सम्मान भी
है यही निजता हमारी, है यही अभिमान भी
हो सहज अभिव्यक्ति इसमें
और मुखरित हो मनुज
ये हमें देती महत्ता, साथ में पहचान भी।

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(दैनिक सागर दिनकर, 21.02.2018 )
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