Wednesday, June 14, 2017

चर्चा प्लस ... बुंदेली वैभव को समृद्ध करता सागर ... - डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh
"सभी स्थानीय संस्थाएं अलग-अलग अपने-अपने स्तर पर बुंदेली के विकास के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं लेकिन पहली बार ये एकसूत्र में बंध कर एक छत के नीचे आ खड़ी हुईं, मानो यह सागर को बुंदेलखंड का सांस्कृतिक केन्द्र बनाने के लिए कटिबद्ध हो उठी हों।"...."बुंदेली वैभव को समृद्ध करता सागर" ... मेरा कॉलम #चर्चा_प्लस में "दैनिक सागर दिनकर" में ( 14.06. 2017) ..My Column #Charcha_Plus in "Sagar Dinkar" news paper....

चर्चा प्लस
बुंदेली वैभव को समृद्ध करता सागर
- डॉ. शरद सिंह 


‘बुंदेली वैभव’ का शानदार आयोजन। इसमें बुंदेली के लोकनृत्य, लोकगीत, लोकसंगीत, कवि सम्मेलन, चर्चा-परिचर्चा, कथावाचन, अखाड़े, बाजे और लोक कलाकृतियों की झांकी भी शामिल रही। एक समग्रता थी इस पूरे आयोजन में और साथ ही अपने क्षेत्र की बोली की समृद्धि को सबके सामने लाने की उत्कट अभिलाषा भी। सभी स्थानीय संस्थाएं अलग-अलग अपने-अपने स्तर पर बुंदेली के विकास के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं लेकिन पहली बार ये एकसूत्र में बंध कर एक छत के नीचे आ खड़ी हुईं, मानो यह सागर को बुंदेलखंड का सांस्कृतिक केन्द्र बनाने के लिए कटिबद्ध हो उठी हों। यह जरूरी भी है भावी पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ने के लिए।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper

विगत 07 और 08 जून 2017 को सागर जिला मुख्यालय में ‘बुंदेली वैभव’ का शानदार आयोजन हुआ। इसमें बुंदेली के लोकनृत्य, लोकगीत, लोकसंगीत, कवि सम्मेलन, चर्चा-परिचर्चा, कथावाचन, अखाड़े, बाजे और लोक कलाकृतियों की झांकी भी शामिल रही। एक समग्रता थी इस पूरे आयोजन में और साथ ही अपने क्षेत्र की बोली की समृद्धि को सबके सामने लाने की उत्कट अभिलाषा भी। संस्कृति संचालनालय मध्यप्रदेश, भोपाल एवं आरुष वेलफेयर सोसायटी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस समारोह में स्थानीय संस्थाओं ने भी आगे बढ़ कर अपना सहयोग दिया। स्थानीय संस्थाओं में श्यामलम कला, स्वर संगम, जीवनदान फाउण्डेशन, लोक रंग दर्पण, नवल प्रयास केन्द्र, चित्रांश शिक्षा समिति, रंग प्रयोग, लोक अभिनव सांस्कृतिक मंच, आर्य संस्कार समिति, आर्ष परिषद्, कलागुरू, इंक मीडिया, रंग संस्था, सर्वांगीण विकास संस्थान, रवीन्द्र भवन ट्रस्ट के साथ ही पं. ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी कॉलेज ऑफ परफार्मिंग फाईन आर्ट्स ने अपनी क्षमता के अनुसार प्रयास किया कि ‘बुंदेली वैभव’ समारोह सफलतापूर्वक सम्पन्न हो। इस आयोजन की सफलता को देखते हुए ऐसा लगा जैसे ये सारी स्थानीय संस्थाएं बुंदेली के वैभव को सामने लाने के लिए अचानक जाग उठी हों। यद्यपि सच इससे भी अधिक रोचक है। वस्तुतः ये सभी स्थानीय संस्थाएं अलग-अलग अपने-अपने स्तर पर बुंदेली के विकास के लिए निरंतर कार्य कर रही हैं लेकिन पहली बार ये एकसूत्र में बंध कर एक छत के नीचे आ खड़ी हुईं, मानो यह सागर को बुंदेलखंड का सांस्कृतिक केन्द्र बनाने के लिए कटिबद्ध हो उठी हों। जाहिर है कि एकजुटता हमेशा अच्छे परिणाम देती है। इस एकजुटता के परिणामस्वरूप ‘बुंदेली वैभव’ समारोह ने अपनी सफलता के झंडे गाड़ दिए। साथ ही अनेक उम्मींदें भी जगा दीं।
सागर जिला मुख्यालय में वर्तमान में कई ऐसी संस्थाएं सक्रियता से काम कर रही हैं। साहित्य के क्षेत्र में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन की सागर इकाई, हिन्दी उर्दू मजलिस, श्यामलम कला, पाठक मंच आदि तथा संगीत के क्षेत्र में स्वर संगम जैसी संस्था महत्वपूर्ण है। वैसे श्यामलम कला संस्था बहुमुखी उद्देश्य ले कर चल रही है। यह संस्था साहित्य एवं कला के प्रत्येक क्षेत्र को निरंतर मंच प्रदान कर रही है। उल्लेखनीय है कि इस संस्था की स्थापना भी अत्यंत संवेदनात्मक आधार पर की गई थी। संस्था के संस्थापक स्व. श्यामाकांत मिश्र अभिनय के सिलसिले में मुंबई में निवास करते थे किन्तु उन्हें अपनी मातृभूमि सागर से बेहद लगाव था। उनके मन में विचार आया कि जीवित व्यक्तियों के सम्मान में तो सभी कार्यक्रम करते हैं किन्तु स्वर्गवासी व्यक्ति और यदि वह विशेष कार्य तो करता रहा किन्तु नामचीन नहीं हो सका तो उसके प्रति कोई रूचि नहीं दिखाता है। अतः उन्होंने श्रद्धांजलि कार्यक्रम को प्रमुखता देनेवाली संस्था के रूप में ‘श्यामलम कला’ संस्था की स्थापना अपने गृहनगर सागर में की। दुर्भाग्यवश वे अपनी संस्था को फलता-फूलता नहीं देख पाए किन्तु उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए उनके अनुज उमाकांत मिश्र, रमाकांत शास्त्री ने अपने सहयोगियों कुंदन पाराशर, कपिल बैसाखिया, डॉ मनीष झा, संतोष पाठक, श्याम पाण्डेय आदि के साथ मिल कर ‘श्यामलम कला’ के उद्देश्यों को पूरा करने का जिस ढंग से बीड़ा उठा रखा है, वह अनुकरणीय है। 


सागर ने फिल्मी दुनिया को गोविन्द नामदेव, मुकेश तिवारी और आशुतोष राणा जैसे शानदार अभिनेता दिए हैं। दिलचस्प बात ये है कि पिछले कुछ समय से शहर में लघुफिल्म निर्माण का दौर चल पड़ा है। ये फिल्में राजेश पंडित जैसे स्थानीय निर्माताओं के द्वारा बनाई जा रही है और ये फिल्में यू-ट्यूब पर अपलोड की जा रही हैं। इनमें से कई फिल्में तो सामाजिक संदेशयुक्त और बुंदेली संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। नाटकों के क्षेत्र में भी सागर नए आयाम रच रहा है। ‘अथग’ जैसी संस्था ने नाटकों से आम जनता को जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है किन्तु जब ये अभिनेता गोविन्द नामदेव ने अपने गृहनगर सागर में नाटकों का निर्देशन एवं मंचन किया तब से आमजन में नाटकों के प्रति रुचि चौगुनी हो गई है। साहित्य और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र की गतिविधियों पर न जाते हुए यदि समग्र पर दृष्टिपात किया जाए तो एक ही तथ्य उभर कर आता है कि सभी सागर को साहित्यिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित होते देखना चाहते हैं। क्योंकि सागर बुंदेलखण्ड का अभिन्न हिस्सा है और बुंदेलखण्ड अपने आप में एक समृद्ध संस्कृति सहेजे हुए है।
दरअसल, बुंदेली बोली का विस्तार वर्तमान मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के विभिन्न ज़िलों में है। इनमें मध्यप्रदेश के प्रमुख ज़िले हैं- पन्ना, छतरपुर, सागर, दमोह, टीकमगढ़ तथा दतिया। उत्तर प्रदेश में झांसी, जालौन, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा तथा महोबा में बुंदेली अपने शुद्ध रूप में बोली जाती है। बुंदेली बोली में भी विभिन्न बोलियों का स्वरूप मिलता है जिन्हें बुंदेली की उपबोलियां कहा जा सकता है। ये उपबोलियां हैं- मुख्य बुंदेली, पंवारी, लुधयांती अथवा राठौरी तथा खटोला। दतिया तथा ग्वालियर के उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में पंवार राजपूतों का वर्चस्व रहा। अतः इन क्षेत्रों में बोली जाने वाली बुंदेली को पंवारी बुंदेली कहा जाता है। इनमें चम्बल तट की बोलियों का भी प्रभाव देखने को मिलता है। हमीरपुर, राठ, चरखारी, महोबा और जालौन में लोधी राजपूतों का प्रभाव रहा अतः इन क्षेत्रों की बुंदेली लुधयांती या राठौरी के नाम से प्रचलित है। यहां बनाफरी भी बोली जाती है। पन्ना और दमोह में खटोला बुंदेली बोली जाती है। जबकि सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, झांसी तथा हमीरपुर में मुख्य बुंदेली बोली जाती है। सर जार्ज ग्रियर्सन ने सन् 1931 ईस्वी में जनगणना के आधार पर बुंदेली का वर्गीकरण करते हुए मानक बुंदेली (मुख्य बुंदेली), पंवारी, लुधयांती , खटोला तथा मिश्रित बुंदेली का उल्लेख किया था।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उस बोली को अन्य बोलियों से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। प्रत्येक बोली की अपनी एक भूमि होती है जिसमें वह पलती, बढ़ती और विकसित होती है। बुंदेली बोली की भी अपनी मूल भूमि है जिसे बुंदेलखण्ड के नाम से पुकारा जाता है। प्राचीन भारतीय इतिहास में बुन्देलखण्ड का उल्लेख दशार्ण, जेजाकभुक्ति तथा जुझौती के नाम से मिलता है। बुन्देलखण्ड के सबसे प्रतापी राजा महाराज छत्रसाल के समय बुन्देली बुन्देलखण्ड राज्य की राजभाषा का दर्जा रखती थी।
प्रत्येक बोली का अपना एक अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोकगाथाओं, लोक गीतों, मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है। बुंदेली में साहित्य का आरंभ लगभग बारहवीं शताब्दी से माना जाता है। बारहवीं शताब्दी में जगनिक ने ‘आल्हा’ काव्य का सृजन किया था जो एक उत्कृष्ट छंदबद्ध काव्य रचना है। बुंदेली बोली के अध्येताओं के अनुसार आल्हा मूलतः बुंदेली रचना है। आल्हा का वर्तमान स्वरूप वस्तुतः मिश्रित स्वरूप है। फर्रुखाबाद के अंग्रेज अधिकारी इलियट ने इसका अल्हैतों से गायन करा कर इसे लिपिबद्ध कराया तथा प्रकाशित कराया था। कवि लाल द्वारा रचित ‘छत्रप्रकाश’ अधिकांश बुंदेली में लिखा गया है। कवि केशवदास की ‘रामचंद्रिका’ तथा गोस्वामी तुलसीदास की ‘कवितावली’ में भी बुंदेली शब्दों का प्रचुर प्रयोग मिलता है। बुंदेली बोली में अनेक लोककथाएं मिलती हैं। ये लोककथाएं मूलतः जीवन के यथार्थ से जुड़े आदर्शों, नीतियों, परम्पराओं एवं विडम्बनाओं को मुखर करती हैं। रामलीला, स्वांग आदि के रूप में बुंदेली नाट्यविधा सतत प्रवाहित है।
बुन्देली लोक साहित्य गद्य और पद्य दोनों विधाओं में धनी है। जन्म से ले कर मृत्यु तक के संस्कारों का परिचय बुन्देली लोकगीतों में समाया हुआ है। बुन्देली में सामान्य जन जीवन से जुड़े संदर्भों के काव्य के साथ ही लोक गाथाएं भी सदियों से कहीं-सुनी जा रही हैं। इनमें भारतीय इतिहास के महाकाव्य काल कहे जाने वाले रामायण एवं महाभारत काल की कथाओं को भी गाथाओं के रूप में गाया जाता है। बुन्देलखण्ड में जगनिक के बाद विष्णुदास ने लगभग 14 वीं सदी में ‘महाभारत कथा’ और ‘रामायण कथा’ लिखी। विष्णुदास की महाभारत कथा को 1435 ई. रचित माना गया है। यह ‘गाथा शैली’ में दोहा, सोरठा, चौपाई तथा विविध छंदों से युक्त है।
खड़ी बोली में भी बुंदेली कथानकों का प्रयोग सदा होता रहा है। उल्लेखनीय है कि हिन्दी कथा सम्राट प्रेमचंद ने अपनी दो कहानियां बुंदेली कथानकों पर लिखी थीं। ये कहानियां हैं-‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारंध्रा’। बुंदेली बोली और बुंदेली वैभव की समृद्धि अकाट्य है सिर्फ ज़रूरत है तो इस समृद्धि को सहेजने के लिए लगातार प्रयासों की। बुंदेलखण्ड के भू-भाग की अपनी पहचान और अपने गौरव के संरक्षण और विकास के रूप में इस समृद्ध बुंदेली बोली के वैभव को नए आयाम मिलने ही चाहिए जिससे रोटी-रोटी की तलाश में बाहर जाने को विवश भावी पीढ़ी भी अपनी जड़ों को पहचान सके और उससे जुड़ी रह सके। यह तभी संभव है जब सागर बुंदेलखण्ड के सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में समृद्ध करता रहे।
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