Saturday, March 4, 2017

आदिवासी कथा साहित्य का स्वरूप निर्धारण (आलेख-अंश) ... डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh

03 मार्च को 03 मार्च 2017 को वक्ता के रूप में मैंने ‘‘ आदिवासी कथा साहित्य का स्वरूप निर्धारण’’ विषय पर अपना व्याख्यान दिया। अवसर था हिन्दी विभाग, डॉ0 हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर(म.प्र.) और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद्, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वावधान में ‘‘आदिवासी  साहित्य विमर्श : समय और सन्दर्भ’’ विषय पर दिनांक 02-03 मार्च 2017 को दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का। ‘‘आदिवासी कथा साहित्य का स्वरूप निर्धारण’’ इस विषय पर मेरा एक लंबा आलेख भी है जिसका अंश आपके लिए यहां दे रही हूं ....

आलेख-अंश ...
आदिवासी कथा साहित्य का स्वरूप निर्धारण
    - डॉ. (सुश्री) शरद सिंह
     
Key Note : कथा साहित्य शब्द का उच्चारण करते ही कथा संसार मस्तिष्क में कौंध जाता है। लेकिन जब आदिवासी कथा साहित्य की चर्चा होती है तो एक उलझन पैदा हो जाती है कि आदिवासी कथा साहित्य किसे माना जाए - 
1. उन कथाओं को जो आदिवासियों में परम्परागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी प्रवाहमान है और जिसका स्वरूप मूलतः वाचिक रहा है। अथवा, 
2. उन कथाओं को जो आदिवासी जीवन के अनुभवों के आधार पर लिखी गईं और जिनके लेखक आदिवासी समुदाय के हैं। अथवा, 
3. उन कथाओं को जो आदिवासी एवं गैर आदिवासी दोनों तरह के लेखकों द्वारा लिखी गईं। 
वस्तुतः आदिवासी कथा संसार से जुड़ने के लिए उसका स्वरूप निर्धारण किया जाना आवश्यक है। साथ ही यह जानना भी कि आदिवासी जीवन पर रचे गए कथा साहित्य की मूल्यवत्ता के लिए वे कौन से तत्व आवश्यक हैं जिनके आधार पर गैरआदिवासी कथा साहित्य को भी आदिवासी कथा साहित्य में गिने जाने का आग्रह किया जा सकता है। 

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जब कोई व्यक्ति किसी को पूरी तरह जाने बिना उसके बारे में निष्कर्ष निकालने लगता है अथवा धारणाएं बनाने लगता है तो यह उसके प्रति अन्याय करने जैसा होता है। आदिवासी समाज के प्रति भी यही रवैया लम्बे समय तक अपनाया जाता रहा है। सुनी-सुनाई बातों अथवा पढ़ी-पढ़ाई बातों को ले कर निष्कर्ष निकाल लेना कि एक बड़ा समुदाय ज्ञान से दूर है, मेरे विचार से सबसे बड़ी मूर्खता ही कहलाएगी। अक्षर ज्ञान और जीवन के ज्ञान में बहुत अंतर होता है। अक्षर ज्ञान के बिना जीवन का ज्ञान आ सकता है लेकिन जीवन के ज्ञान के बिना अक्षर-ज्ञान का कोई अर्थ ही नहीं होता है। जब हम किसी समाज अथवा क्षेत्र विशेष के कथा साहित्य की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले यह तय करना चाहिए कि हम आधुनिक एवं लिखित कथा साहित्य को चुन रहे हैं अथवा परम्परागत वाचिक कथा साहित्य को। वैसे किसी संस्कृति एवं उसके आधुनिक साहित्य को समझने के लिए उसके परम्परागत वाचिक साहित्य का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। परम्परागत वाचिक साहित्य में जीवन के ज्ञान का वह भंडार होता है जिसमें किसी एक व्यक्ति के साथ अनक व्यक्तियों के अनुभव एवं कल्पनाशीलता एकाकार होती जाती है।

आदिवासी साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों का जीवन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ है। आदिवासी साहित्य को विभिन्न नामों से पूरी दुनिया में जाना जाता है। यूरोप और अमेरिका में इसे नेटिव अमेरिकन लिटरेचर, कलर्ड लिटरेचर, स्लेव लिटरेचर और अफ्रीकन-अमेरिकन लिटरेचर, अफ्रीकन देशों में ब्लैक लिटरेचर और ऑस्ट्रेलिया में एबोरिजिनल लिटरेचर, तो अंग्रेजी में इंडीजिनस लिटरेचर, फर्स्टपीपुल लिटरेचर और ट्राइबल लिटरेचर कहते हैं। भारत में इसे हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में सामान्यतः ‘आदिवासी साहित्य’ ही कहा जाता है।
गैर-आदिवासी साहित्य की अध्ययन परंपरा आदिवासी साहित्य को दो श्रेणी में विभाजित करती है -
ऽ    वाचिक परंपरा का आदिवासी साहित्य
ऽ    लिखित आदिवासी साहित्य
  
भारत में अनेक आदिवासी जातियां आज भी अपनी मौलिक मान्यताओं, रीति-रिवाज़ों एवं लोकथाओं के साथ जीवनयापन कर रही है। किन्तु समय और समाज में परिवर्तन के क्रम में ये आदिवासी जनजातियां भी धीरे-धीरे अपनी वाचिक धरोहरों को खोने लगी हैं। आदिवासी रीति-रिवाज एवं वैचारिकता हमारे लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि कोई पुरातात्विक धरोहर क्योंकि इनमें जीवन के अनुभवों एवं कल्पनाओं को बिना किसी कृत्रिमता के प्रस्तुत किया जाता है, इनमें आदि जीवन का निचोड़ है तथा इनमें संचित ज्ञान का प्रवाह है। यह प्रवाह कहीं सरस्वती नदी की भांति लुप्त न हो जाए इसलिए इन्हें सहेज लेना आवश्यक है।      
 भारत में अनेक जनजातियां निवास करती हैं जो आदिमयुग से अपनी परम्पराओं को अपनी संस्कृति में समेटे हुए हैं और इन्हें आदिवासी जातियों के नाम से भी जाना जाता है। इनमें मध्यप्रदेश में बैगा, माड़िया, भील, मुड़िया, गोण्ड, कोरकू, खैरबार, हल्बा, हल्बी, भारिया, कोल, मुण्डा, उरांव, पारधी, सौंर आदि जनजातियां हैं। छत्तीसगढ़ में बैगा, भैइना, भारिया, भील, बिंझवार, बीरहोर, गोण्ड, हल्बा, हल्बी, सौंर, कमार,कोरकू, खैरबार, कोल, उराव जनजातियां प्रमुख हैं। झारखण्ड में मुण्डा, उरांव, संथाल, गोण्ड, बिरहोर, हो, माल पहाड़िया जनजातियां पीढ़ियों से निवास करती आ रही हैं। इसी प्रकार राजस्थान में भील, गरासिया, ढोली, भिलाला, मीणा, धाकां, कथोडी, पटेलिया, सहारिया तथा कुमाऊं में भूटिया, थारू, जानसारी आदि जनजातियां निवासरत हैं। उड़ीसा की जुआन, भुइया जनजाति प्रमुख हैं।  पश्चिम बंगाल एवं महाराष्ट्र में  कोण्ड जनजाति बसी हुई है। दक्षिण भारत में कर्नाटक में टोडा जनजाति, तमिलनाडु की कुडिया जनजाति केरल में एरावाल्लान, पल्लेयन, पानियन, पुलया, कदर, कनैक्कर, उल्लादान, मलासार, मन्नान, उरली, कम्मारा, कपु, कोंडरेड्डीज़, कुरुम्बा, मालामालासार, मराती आदि जनजातियां प्रमुख हैं।  अण्डमान निकोबार द्वीपसमूह में अण्डमान में ग्रेट अण्डमानी, ओंगी, जारवा, सेटिनली -ये चारो नेग्रीटोज़ मूल की जनजातियां हैं। अण्डमानी जनजाति में भी प्रमुख सात समुदाय हैं जैसे अकाबोआ, अकाकोरा, अकाजेरू और अकावी आदि हैं।  शोम्फेन -ग्रेट निकेबार की जनजाति है। यह मंगोल प्रजाति की है। इसकी दो उपजातियां हैं- शोम्फेन और मावा शोम्फेन। कई आदिवासी जातियां विभिन्न प्रदेशों में बसी हुई हैं। जो संभवतः कई पीढ़ियों पहले अर्थोपार्जन की दृष्टि से घूमती, भटकती अपने मूल उद्गम स्थान से दूर दूसरे प्रदेशों में जा बसी। इसीलिए एक ही आदिवासी जाति एक से अधिक प्रदेशों में मिलती है । जैसे भील मध्यप्रदेश के मालवा क्षेत्रा में बसे हुए  हैं और राजस्थान में भी उनका निवास है। वर्ली जनजाति दक्षिणी गुजरात के साथ-साथ उत्तरी महाराष्ट्र में भी पाई जाती है।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लो साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस गं्रथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
कर्नल टॉड के बाद कुछ और गं्रथ आए जिनमें भारतीय लोकथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में जनजातीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक गं्रथों में जनजातीय लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया।
जब आदिवासी जीवन पर केन्द्रित कथा साहित्य का लेखन अथवा अध्ययन किया जाए इससे पहले उस जीवन की मूल परम्पराओं, रीति-रिवाजों को जानना श्रेयष्कर होता है। आज बड़ी मात्रा में लोकसाहित्य लेखबद्ध रूप में उपस्थित है और उसे पढ़ कर आदिवासी जीवन की जड़ों तक पहुंचने का रास्ता पाया जा सकता है। ‘रास्ता’ शब्द का प्रयोग यहां इसलिए कर रही हूं कि जीवन के बारे में जानने का सबसे सटीक ढंग होता है, उस जीवन को समीप से देखना और संभव हो तो उसे जी कर देखना। किसी जाति विशेष अथवा समाज विशेष के जीवन को जानने के लिए उस समाज अथवा जाति समुदाय के बीच जा कर रहना और अनुभव संजोना सबसे उत्तम तरीका होता है। मात्र अध्ययनकक्ष में बैठ कर किसी समुदाय के जीवन के बारे में सही चित्र नहीं उकेरा जा सकता है और दोषपूर्ण चित्र से सही ज्ञान का संचार नहीं हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि यदि आदिवासी कथा साहित्य लिखा जा रहा हो तो पहले आदिवासी क्षेत्र में जा कर वहां के अनुभवों से तादात्म्य स्थापित किया जाए। यह दोनों ही स्थितियों में आवश्यक हो जाता है- जब आदिवासी कथा साहित्य अर्थात् आदिवासी लोककथाओं को संग्रहीत कर लेखबद्ध कर रहे हों, उसका अनुवाद कर रहे हों या फिर जब आदिवासी जीवन पर केन्द्रित नया साहित्य रच रहे हों।
बुनियादी रूप से प्रश्न यह उठता है कि आदिवासी साहित्य अथवा आदिवासी कथा साहित्य हम किसे कह सकते हैं? वाचिक अथवा ऑरेचर को अथवा लिखित साहित्य को?

सिमोन गिकांडी रूलेग ने ‘‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ आफ्रीकन लिटरेचर’’ नामक पुस्तक संपादित की। इसमें उन्होंने वाचिक परम्परा के साहित्य को ‘‘ऑरेचर’’ माना। ( "Orature means something passed on through the spoken word, and because it is based on the spoken language it comes to life only in a living community. " – 'Encyclopaedia of African Literature' edited by Simon Gikandi Routledge 2003 edition )

उगांडा के स्कॉलर पियो ज़िरीमू ने ओरल साहित्य को ‘‘ऑरेचर’’ नाम दिया। (The Anthem Dictionary of Literary Terms and Theory By Peter Auger Anthem Press, 2010 at Page 210 and Uhuru's Fire: African Literature East to South By Adrian Roscoe CUP Archive 1977 at page 9)

इस संबंध में यहां मैं वंदना टेटे के विचार सामने रखना चाहूंगी। वंदना टेटे  प्रखर आदिवासी लेखिका, कवयित्री और आदिवासी दर्शन की प्रवक्ता हैं। आदिवासियों की वैचारिकी और सौंदर्यबोध को कलाभिव्यक्तियों का मूल तत्व मानते हुए उन्होंने आदिवासी साहित्य को ‘प्रतिरोध का साहित्य’ की बजाय ‘रचाव और बचाव’ का साहित्य कहा। आदिवासी साहित्य की दार्शनिक अवधारणा प्रस्तुत करते हुए उनकी स्थापना है कि आदिवासियों की साहित्यिक परंपरा औपनिवेशिक और ब्राह्मणवादी शब्दावलियों और विचारों से बिल्कुल भिन्न है। आदिवासी जीवनदृष्टि पक्ष-प्रतिपक्ष को स्वीकार नहीं करता। आदिवासियों की दृष्टि समतामूलक है और उनके समुदायों में व्यक्ति केन्द्रित और शक्ति संरचना के किसी भी रूप का कोई स्थान नहीं है। वे आदिवासी साहित्य का ‘लोक’ और ‘शिष्ट’ साहित्य के रूप में विभाजन को भी नकारती हैं और कहती हैं कि आदिवासी समाज में समानता सर्वोपरि है, इसलिए उनका साहित्य भी विभाजित नहीं है। वह एक ही है। वे अपने साहित्य को ‘ऑरेचर’ कहती हैं। ऑरेचर अर्थात् ऑरल लिटरेचर। उनकी स्थापना है कि  ‘‘आदिवासी लेखकों का आज का लिखित साहित्य भी उनकी वाचिक यानी पुरखा (लोक) साहित्य की परंपरा का ही साहित्य है। उनकी यह भी स्थापना है कि गैर-आदिवासियों द्वारा आदिवासियों पर रिसर्च करके लिखी जा रही रचनाएं शोध साहित्य है, आदिवासी साहित्य नहीं। आदिवासियत को नहीं समझने वाले हिंदी-अंग्रेजी के लेखक आदिवासी साहित्य लिख भी नहीं सकते।’’

नवगठित झारखण्ड राज्य में नवंबर 2003 में आदिवासी व देशज लेखकों, भाषाविदों, संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों के संगठन ‘झारखण्डी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा’ की स्थापना की। जिसका पहला महाजुटान 2006 में हुआ। जिसमें देश भर से शामिल 600 से अधिक देशज व आदिवासी संस्कृतिकर्मियों ने मार्गदर्शी सिद्धांत, संविधान और कार्यक्रम गृहित करते हुए ‘अखड़ा’ को देशव्यापी संगठन का स्वरूप दिया। वंदना टेटे इसकी संस्थापक महासचिव चुनी गईं।

अगस्त 2011 में झारखंडी भाषाओं को द्वितीय राजभाषा का संवैधानिक दर्जा देने के सवाल पर अखड़ा ने अन्य कई संगठनों का साथ लेते हुए झारखंड विधानसभा को घेरा। जिसके परिणामस्वरूप अर्जुना मुंडा की तत्कालीन राजग सरकार ने झारखंड की पांच आदिवासी भाषाओं - मुंडारी, हो, खड़िया, संताली व कुड़ुख और चार देशज भाषाओं - कुड़मालि, खोरठा, नागपुरी व पंचपरगनिया को द्वितीय राजभाषा के रूप में मंजूरी दी। आजादी के बाद देश में यह पहली बार हुआ कि किसी सांस्कृतिक संगठन ने भाषा के सवाल पर विधानसभा को घेरा और राज्य ने सामुदायिक दबाव में नौ देशज-आदिवासी भाषाओं को द्वितीय राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।

12 से 14 मार्च 2012 को अखड़ा ने देश का पहला तीन दिवसीय आदिवासी-दलित नाट्य समारोह और आदिवासी-दलित रंगभाषा पर दो दिवसीय सिम्पोजियम का आयोजन किया।
14-15 जुलाई 2012 को अखड़ा ने रांची में ही ‘आदिवासी दर्शन और समकालीन आदिवासी साहित्य सृजन’ पर दो दिवसीय अंतर्देशीय सेमिनार किया। इस सेमिनार ने पहली बार आदिवासी साहित्य की सैद्धांतिकी को आदिवासी दर्शन का अभिन्न अंग मानते हुए 15 सूत्री ‘आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा पत्र’ जारी किया।
सेमिनार के समापन पर आदिवासियों की ओर से भारतीय साहित्य और समाज को दिए गए अपने संदेश में वरिष्ठ आदिवासी कवयित्री ग्रेस कुजूर ने कहा कि आदिवासी समाज न अपनी औरतों का अपमान करता है और न ही उनके साथ हिंसा से पेश आता है। वह दुनिया में सहअस्तित्व और सहजीविता का सबसे बड़ा पैरोकार है। लेकिन हिंसा और गैर बराबरी के खिलाफ डटकर खड़े इस आदिवासी समाज को ही खत्म करने की कोशिश हो रही है। इस आदिवासी दर्शन को विस्थापित करके दुनिया को बचाया नहीं जा सकता है।
समापन के ठीक पहले वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्य का 15 सूत्री रांची घोषणा जारी किया-
1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो।
2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो।
3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो।
4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना नहीं करें।
5. जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो।
6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो.।
8. जो धरती को संसाधन की बजाय मां मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो।
9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो।
10. जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो।
11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार पक्ष में हो।
12. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों और व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो।
13. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यकीन करता हो।
14. सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो।
15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्वदृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो।


लोककथा एवं आधुनिक कथा की सम-महत्ता

1.    लोककथा की महत्ता

किसी भी क्षेत्र के विकास में उस क्षेत्र की संस्कृति की अहम् भूमिका रहती है। संस्कृति में भाषा, बोली आदि के साथ-साथ उस क्षेत्र की ऐतिहासिक विरासत, लोकसाहित्य, लोकविश्वास,जनजीवन की परम्पराएं एवं लोकाचार निबद्ध रहते हैं।
किसी भी लोकभाषा अर्थात् बोली की अपनी एक जातीय पहचान होती है। यह जातीय पहचान ही उसे अन्य भाषाओं से अलग कर के स्वतंत्र अस्तित्व का स्वामी बनाती है। पहले बोली एक सीमित क्षेत्र में बोली जाती थी किन्तु धीरे-धीरे सीमित क्षेत्र के निवासियों के असीमित फैलाव ने बोली को भी असीमित विस्तार दे दिया है। इसलिए आज बोली का महत्व मात्र उसके क्षेत्र विशेष से जुड़ा न हो कर पूरी तरह से जातीय गुणों एवं जातीय गरिमा से जुड़ गया है।
प्रत्येक लोकभाषा का अपना अलग साहित्य होता है जो लोक कथाओं, लोक गीतों, मुहावरों, कहावतों तथा समसामयिक सृजन के रूप में विद्यमान रहता है। अपने आरंभिक रूप में यह वाचिक रहता है तथा स्मृतियों के प्रवाह के साथ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में प्रवाहित होता रहता है।
 किसी भी संस्कृति के उद्गम के विषय में जानने और समझने में वाचिक परम्परा की उस विधा से आधारभूत सहायता मिलती है जिसे लोककथा कहा जाता है। लोककथाएं वे कथाएं हैं जो सदियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी और दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी के सतत क्रम में प्रवाहित होती चली आ रही हैं। यह प्रवाह उस समय से प्रारम्भ होता है जिस समय से मनुष्य ने अपने अनुभवों, कल्पनाओं एवं विचारों का परस्पर आदान-प्रदान प्रारम्भ किया। लोकसमुदायों में लोककथाओं का जो रूप आज भी विद्यमान है, वह लोककथाओं के उस रूप के सर्वाधिक निकट है जो विचारों के संप्रेषण और ग्रहण की प्रक्रिया आरम्भ होने के समय रहा होगा। लोककथाओं में मनुष्य के जन्म, पृथ्वी के निर्माण, देवता के व्यवहार, भूत, प्रेत, राक्षस आदि से लेकर लोकव्यवहार से जुड़ी कथाएं निहित हैं।
लोक कथाओं का जन्म उस समय से माना जा सकता है जब मनुष्य ने अपनी कल्पनाओं एवं अनुभवों को कथात्मक रूप में कहना शुरू किया। लोककथाएं लोकसाहित्य का अभिन्न अंग हैं। हिन्दी में लोक साहित्य शब्द अंग्रेजी के ‘फोकलोर’ के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है। अंग्रेजी में ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग सन् 1887 ई. में अंग्रेज विद्वान सर थामस ने किया था। इससे पूर्व लोक साहित्य तथा अन्य लोक विधाओं के लिए ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ शब्द का प्रयोग किया जाता था। भारत में लोक साहित्य का संकलन एवं अध्ययन 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में उस समय हुआ जब सन् 1784 ई. में कलकत्ता हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश सर विलियम जोन्स ने ‘रॉयल एशियाटिक सोसायटी’ नामक संस्था की स्थापना की। इस संस्था के द्वारा एक पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ किया गया जिसमें भारतीय लोक कथाओं एवं लोक गीतों को स्थान दिया गया। भारतीय लोककथाओं के संकलन का प्रथम श्रेय कर्नल जेम्स टॉड को है जिन्होंने सन् 1829 ई. में ‘एनल्स एण्ड एंटीक्वीटीज़ ऑफ राजस्थान’ नामक ग्रंथ लिखा। इस गं्रथ में उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं एवं लोक गाथाओं का संकलन किया।
         कर्नल टॉड के गं्रथ के बाद कुछ और गं्रथ आए जिनमें भारतीय लोककथाओं का अमूल्य संकलन था। इनमें प्रमुख थे- लेडी फेयर का ‘ओल्ड डेक्कन डेज़’ (1868), डॉल्टन का ‘डिस्क्रिप्टिव इथनोलॉजी अॅाफ बेंगाल’ (1872), आर.सी. टेंपल का ‘लीज़ेण्ड ऑफ दी पंजाब’ (1884), मिसेस स्टील का ‘वाईड अवेक स्टोरीज़’ (1885) आदि। वेरियर एल्विन की दो पुस्तकें ‘फॉकटेल्स ऑफ महाकोशल’ तथा ‘मिथ्स ऑफ मिडिल इंडिया’, रसेल एवं हीरालाल की ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स ऑफ साउथ इंडिया’, थर्सटन की ‘दी ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ नार्थ-वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड कास्ट्स ऑफ अवध’, इंथोवेन की ‘ट्राईब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ बॉम्बे’ आदि पुस्तकों में क्षेत्रीय लोककथाओं का उल्लेख किया गया। इन आरम्भिक ग्रंथों के उपरान्त अनेक गं्रथों में क्षेत्रीय लोककथाओं को सहेजा और समेटा गया।
उदाहरण के लिए यदि कोई लकड़हारा जंगल में लकड़ी काटने जाता है और वहां उसका सामना शेर से हो जाता है, तो अपने प्राण बचा कर गांव लौटने पर वह शेर के खतरे को इस उद्देश्य से बढ़ा-चढ़ा कर कहेगा कि जिससे जंगल में जाने वाले अन्य व्यक्ति सावधान और सतर्क रहें। शेर से सामना होने तथा शेर के प्रति भय का संचरण होने पर सहज भाव से किस्सागोई आरम्भ हो जाती है। यह स्थापित किया जाने लगता है कि अमुक समय में अमुक गांव के अमुक व्यक्ति को इससे भी बड़ा और भयानक शेर मिला था। जिसे उस व्यक्ति ने अपनी चतुराई से मार भगाया था। वनों के निकट बसे हुए ग्राम्य जीवन में इस प्रकार की कथाओं का चलन निराशा में आशा का , भय में निर्भयता का और हताशा में उत्साह का संचार करता है।
    वस्तुतः लोककथा वह कथा है जो लोक द्वारा लोक के लिए लोक से कही जाती है। इसका स्वरूप वाचिक होता है। इसमें वक्ता और श्रोता  अनिवार्य तत्व होते हैं। वक्ता एक होता है किन्तु श्रोता एक से अनेक हो सकते हैं। इन कथाओं को गांव की चौपालों, नीम या वटवृक्ष के नीचे बने हुए चबूतरों पर, घर के आंगन में चारपरई पर लेटे हुए अथवा अलाव को धेर कर बैठे हुए कहा-सुना जाता है। ‘कथा’ शब्द का अर्थ ही यही है कि ‘जो कही जाए’। जब कथा कही जाएगी तो श्रोता की उपस्थिति स्वतः अनिवार्य हो जाती है। लोककथा को कहे और सुने जाने के मध्य ‘हुंकारू’ की अहम भूमिका होती है। ‘हुंकारू’ कथा सुनते हुए श्रोता द्वारा ‘हूं’-‘हूं’ की ध्वनि निकालने की प्रक्रिया होती है। जिसके माध्यम से श्रोता द्वारा यह जताया जाता है कि  वह सजग है और चैतन्य हो कर कथा सुन रहा है। साथ ही  कथा में उसकी उत्सुकता बनी हुई है। इस ‘हुंकारू’ से कथा कहने वाले को भी उत्साह मिलता रहता है। उसे भी पता चलता रहता है कि श्रोता उसकी कथा में  रुचि ले रहा है, चैतन्य हो कर सुन रहा है, सजग है तथा कथा में आगे कौन -सा घटनाक्रम आने वाला है इसके प्रति उत्सुक है। लोककथा की भाषा लोकभाषा और शैली प्रायः इतिवृत्तात्मक होती है।

लोककथाओं के प्रकार :

लोककथाओं में विषय की पर्याप्त विविधता होती है। इन कथाओं के विषय को देश, काल परिस्थिति के साथ ही कल्पनाशीलता से विस्तार मिलता है। लोककथाओं के भी विषयगत कई प्रकार हैं-
1. साहसिक लोककथाएं - इस प्रकार की कथाओं में नायक अथवा नायिका के साहसिक अभियानों का विवरण रहता है।
2. मनोरंजनपरक लोककथाएं- इन कथाओं में हास्य का पुट समाहित रहता है।
3. नीतिपरक लोककथाएं- वे कथाएं जो जीवन सही ढंग से जीने की शिक्षा देती हैं ,
4. कर्मफलक एवं भाग्यपरक लोककथाएं- इन कहानियों में कर्म की प्रधानता अथवा कर्म के महत्व को स्थापित किया जाता है। ,  
5. मूल्यपरक लोककथाएं- जीवन में मानवीय मूल्यों के महत्व को स्थापित करती हैं।
6. अटका लोककथाएं- वे लोककथाएं जिसमें एक पात्र किसी रहस्य के बारे में जिज्ञासा प्रकट करता और दूसरा पात्र रहस्य को सुलझा कर उसकी जिज्ञासा शांत करता।  
7. धार्मिक लोककथाएं- लोकजीवन में धार्मिक मूल्यों के महत्व को रेखांकित करती है।

लोककथा और मानवमूल्य :
मानव जीवन को मूल्यवान बनाने की क्षमता रखने वाले गुणों को मानव मूल्य कहा जाता है। आज मूल्य शब्द का प्रयोग सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक आदि सभी क्षेत्रों में समान रूप से व्यवहार के लिए होने लगा है। मूल्य शाश्वत व्यवहार है। इसका निर्माण मानव के साथ-साथ हुआ है। यदि इसका अंत होगा तो फिर सभ्यता के साथ मानवता भी समाप्त हो जायेगी। ‘मूल्य’ उन्हीं व्यवहारों को कहा जाता है जिनमें मानव जीवन का हित समाविष्ट हो, जिनकी रक्षा करना समाज अपना सर्वाच्च कर्त्तव्य मानता है। मूल्य परम्परा का प्राण तत्त्व है। ये जीवन के आदर्श एवं सर्वसम्मत सिद्धान्त होते हैं। मूल्यों को अपनाकर जाति, धर्म और समाज को, मानव जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास किया जाता है।
मूल्य सामाजिक मान्यताओं के साथ बदलते भी रहते हैं, किन्तु उनमें अन्तर्निहित मंगल कामना और सार्वजनिक हित की भावना कभी तिरोहित नहीं होती। नए परिवेश में जब पुरानी मान्यताएं कालातीत हो जाती हैं तो समाज नयी मान्यताओं को स्वीकार कर लेता है और वे ही मान्यताएं ‘मूल्य’  बन जाती हैं। पुरातन काल में जीवन मूल्यों के रूप में श्रद्धा, आस्था, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को स्वीकार किया गया है। वहीं नवीन मूल्यों में सत्य, अहिंसा, सहअस्तित्व, सहानुभूति, करुणा, दया आदि आते हैं।
लोक कथाएं मानव मूल्यों पर ही आधारित होती हैं और उनमें मानव-जीवन के साथ ही उन सभी तत्वों का विमर्श मौजूद रहता है जो इस सृष्टि के आधारभूत तत्व हैं और जो मानव-जीवन की उपस्थिति को निर्धारित करते हैं। जैसे- जल, थल, वायु, समस्त प्रकार की वनस्पति, समस्त प्रकार के जीव-जन्तु आदि।
लोक कथाओं में मानव मूल्य को जांचने के लिए इन बिन्दुओं पर ध्यान दिया जा सकता है कि -
1.    लोक कथाएं संस्कृति की संवाहक होती हैं।
2.    लोक कथाओं की अभिव्यक्ति एवं प्रवाह मूल रूप से वाचिक होती है।
3.    इसका प्रवाह कालजयी होता है यानी यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी
   प्रवाहित होती रहती है।
4.    सामाजिक संबंधों के कारण लोककथाओं का एक स्थान से दूसरे
   स्थान तक विस्तार होता जाता है।
5.    एक स्थान में प्रचलित लोक कथा स्थानीय प्रभावों के सहित दूसरे
   स्थान पर भी कही-सुनी जाती है।
6.    लोकथाओं का भाषिक स्वरूप स्थानीय बोली का होता है।
7.    इसमें लोकोत्तियों एवं मुहावरों का भी खुल कर प्रयोग होता है जो स्थानीय अथवा आंचलिक रूप में होते हैं।
8.    कई बार लोक कथाएं कहावतों की व्याख्या करती हैं। जैसे सौंर कथा है-‘ आम के बियाओं में सगौना फूलो’।
9.    लोक कथाओं में जनरुचि के सभी बिन्दुओं का समावेश रहता है।
10.    इन कथाओं में स्त्री या पुरुष के बुद्धिमान या शक्तिवान होने के विभाजन जैसी कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है। कोई कथा नायक प्रधान हो सकती है तो कोई नायिका प्रधान।
11.    विशेष रूप से बुंदेली लोक कथाओं में नायिका का अति सुन्दर होना या आर्थिक रूप से सम्पन्न होना पहली शर्त नहीं है। एक मामूली लड़की से  ले कर एक मेंढकी तक कथा की नायिका हो सकती है और एक दासी भी रानी पर भारी पड़ सकती है।
12.    लोक कथाओं का मूल उद्देश्य लोकमंगल हेतु रास्ता दिखाना और ऐसा आदर्श प्रस्तुत करना होता है जिससे समाज में प्रत्येक व्यक्ति को महत्व मिल सके।
13.    कथ्य में स्पष्टता होती है। जो कहना होता है, वह सीधे-सीधे कहा जाता है, घुमा-फिरा कर नहीं।
14.    उद्देष्य की स्पष्टता भी लोक कथाओं की अपनी मौलिक विशिष्टता है। सच्चे और ईमानदार की जीत स्थापित करना इन कथाओं का मूल उद्देष्य होता है, चाहे वह मनुष्य की जीत हो, पशु-पक्षी की या फिर बुरे भूत-प्रेत पर अच्छे भूत-प्रेत की विजय हो।
15.    असत् सदा पराजित होता है और सत् सदा विजयी होता है।
16.    आसुरी शक्तियां मनुष्य को परेशान करती हैं, मनुष्य अपने साहस के बल पर उन पर विजय प्राप्त करता है। वह साहसी व्यक्ति शस्त्रधारी राजा या सिपाही हो यह जरूरी नहीं है, वह गरीब लकड़हारा या कोई विकलांग व्यक्ति भी हो सकता है।
17.    जो मनुष्य साहसी होता है, बड़ा देव उसकी सहायता करते हैं।
18. लगभग प्रत्येक गांव में एक न एक ऐसा विद्वान होता है जिसके पास सभी प्रश्नों और जिज्ञासाओं के सटीक उत्तर होते हैं। यह ‘सयाना’ कथा का महत्वपूर्ण पात्र होता है।
एक वाक्य में कहा जाए तो लोक कथाएं हमें आत्म सम्मान, साहस और पारस्परिक सद्भावना के साथ जीवन जीने का तरीका सिखाती हैं।
लोककथाओं का मूल उद्देश्य मात्र मनोरंजन कभी नहीं रहा, इनके माध्यम से अनुभवों का आदान-प्रदान, मानवता की शिक्षा, सद्कर्म का महत्व तथा अनुचित कर्म से दूर रहने का संदेश दिया जाता रहा है। इसीलिए इन कथाओं में भूत-प्रेत के भय की कल्पना और विभिन्न प्रकार के मिथक विद्यमान हैं जिससे मनुष्य ऐसे कार्य न करे जिससे उसे किसी भी प्रकार का कष्ट उठाना पड़े। इसे मनुष्यता के विरुद्ध कार्य करने वालों के लिए लोकचेतना का आग्रह कहा जा सकता है।

2.    आधुनिक कथालेखन की महत्ता

आदिवासी जीवन पर लिखे गए एवं लिखे जा रहे कथा साहित्य की अपनी अलग महत्ता है और इसे नकारा नहीं जा सकता है। आदिवासी जीवन पर केन्द्रित वही आधुनिक कथा साहित्य पाठक को सही जानकारी दे पाता है जिसको लिखने से पूर्व कथाकार ने आदिवासी क्षेत्रों का भ्रमण किया हो, वहां के जीवन को भली-भांति जाना समझा हो और उनके दुख-सुख को आत्मसात किया हो। यही शर्त आदिवासी साहित्य को पढ़ने वाले पर भी लागू होती है लेकिन इस संशोधन के साथ कि उसने संबंधित क्षेत्र का भ्रमण नहीं किया हो तो कोई बात नहीं लेकिन उसे संबंधित क्षेत्र और वहां के जनजीवन के बारे में अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिए। इससे उस साहित्य के मर्म को समझने में सुगमता हो ती है। उदाहरण के लिए रणेन्द्र का उपन्यास ‘‘ग्लोबल गांव के देवता’’ लिखने के पूर्व जिस प्रकार रणेन्द्र ने झारखण्ड की असुर जनजाति के जीवन को खंगाला अथवा ‘‘अल्मा कबूतरी’’ लिखते समय बुन्देलखण्ड में बसने वाली कबूतरा जनजाति के जीवन को एक पात्र की तरह अनुभव किया।
 To be Continued ........................

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निष्कर्ष :
जनजातियों को उनकी परम्पराओं सहित सहेजने और उसी के साथ उन्हें ससम्मान, बिना किसी भेद-भाव के विकास की मुख्यधारा में रचने-बसने का अवसर बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि आदिवासी कथा साहित्य का एकमत से स्वरूप निर्धारित किया जाए और आदिवासी आधुनिक साहित्य को एक आवश्यक विमर्श के रूप में गंभीरता से लिया जाए क्यों आदिवासी कथाविमर्श मात्र आदिवासी समुदाय का विमर्श नहीं अपितु समाज के विकास का प्रमाणिक लेखाजोखा है।
To be Continued .........
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