Thursday, May 26, 2016

चर्चा प्लस ….. लैंगिक समानता के लिए ज़मीनी प्रयासों को बढ़ाना ज़रूरी ….. डॉ. शरद सिंह

मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (26. 05. 2016) .....
My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....

चर्चा प्लस
लैंगिक समानता के लिए ज़मीनी प्रयासों को बढ़ाना ज़रूरी
- डॉ. शरद सिंह

( ‘‘अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुम्भ’’, सिंहस्थ 2016 में शामिल किए गए लेखिका के आलेख का अंश)
 
महिला, औरत, वूमेन या कोई और सम्बोधन - किसी भी नाम से पुकारा जाए, महिला हर हाल में महिला ही रहती है....और मेरे विचार से उसे महिला रहना भी चाहिए। प्रकृति ने महिला और पुरुष को अलग-अलग बनाया है। यदि प्रकृति चाहती तो एक ही तरह के प्राणी को रचती और उसे उभयलिंगी बना देती। किन्तु प्रकृति ने ऐसा नहीं किया। संभवतः प्रकृति भी यही चाहती थी कि एक ही प्रजाति के दो प्राणी जन्म लें। दोनों में समानता भी हो और भिन्नता भी। दोनों परस्पर एक दूसरे के पूरक बनें, प्रजनन करें और अपनी प्रजाति को पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाएं।
दुर्भाग्यवश, पुरुष और महिला ने मिल कर जिस समाज को गढ़ा था, पुरुष उसका मालिक बनता चला गया और महिला दासी। इतिहास साक्षी है कि पुरुषों ने युद्ध लड़े और खामियाजा भुगता महिलाओं ने। जब महिलाओं को इस बात का अहसास हुआ तो उन्होंने अपने दमन का विरोध करना आरम्भ कर दिया। पूरी दुनिया की औरतें संघर्षरत हैं किन्तु समानता अभी भी स्थापित नहीं हो सकी है। प्रयास निरन्तर किए जा रहे हैं। सरकारी और गैर सरकारी संगठन प्रयास कर रहे हैं लेकिन महिलाओं की अशिक्षा, अज्ञान और असुरक्षा जागरूकता के पहिए को इस प्रकार थाम कर बैठ जाती है कि सारे प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं। दरअसल जागरूकता औरत के भीतर उपजनी आवश्यक है। स्वतः प्रेरणा से बढ़ कर और कोई शक्ति नहीं है जो शतप्रतिशत परिणाम दे सके। जिन महिलाओं ने अपने भीतर की पुकार को सुना और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया उन्हें अधिकार मिले भी हैं, साथ ही वे दूसरी महिलाओं को भी अधिकार दिलाने में सफल रही हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
 मैं समझती हूं कि प्रगति के हिसाब से समूची दुनिया की महिलाओं की दो तस्वीरें हैं। पहली तस्वीर उन महिलाओं की है जो अपने साहस, अपनी क्षमता और अपनी योग्यता को साबित कर के पुरुषों की बराबरी करती हुई प्रथम पंक्ति में आ गई हैं या प्रथम पंक्ति के समीप हैं। दुनिया के उन देशों में जहां महिलाओं के अधिकारों की बातें परिकथा-सी लगती हैं, औरतें तेजी से आगे आ रही हैं और अपनी क्षमताओं को साबित कर रही हैं। चाहे भारत हो या इस्लामिक देश, औरतें अपने अधिकार के लिए डटी हुई हैं। वे चुनाव लड़ रही हैं, कानून सीख रही हैं, आत्मरक्षा के गुर सीख रही हैं और आम महिलाओं के लिए ‘आइकन’ बन रही हैं।
औरत की दूसरी तस्वीर वह है जिसमें औरतें प्रताड़ना के साए में हैं और अभी भी संघर्षरत हैं। वैश्विक सतर पर कोई भी देश ऐसा नहीं है जहां लैंगिक भेद पूरी तरह समाप्त हो गया हो। स्कैंडिनेवियन देश जैसे आईलैंड, नार्वे, फिनलैण्ड और स्वीडेन ही ऐसे देश हैं जो लैंगिक खाई को तेजी से पाट रहे हैं। इसके विपरीत मध्यपूर्व, अफ्रिका और दक्षिण एशिया में ऐसी महिलाओं की संख्या बहुत अधिक है जिनमें जागरूकता की कमी है। उन्हें अनेक वैधानिक अधिकार प्रदान कर दिए गए हैं लेकिन वे उनका लाभ नहीं ले पाती हैं। क्योंकि वे अपने अधिकारों से बेख़बर हैं।
जहां तक लैंगिक समानता का प्रश्न है तो संयुक्त राष्ट्र ने अपने 2015 के बाद के विकास एजेंडे के पूर्ण कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए दुनिया भर में एक व्यापक अभियान शुरू किया है। विगत सितम्बर में हुई बैठक में घोषणा की गई कि राष्ट्रों के सतत विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण जरूरी हैं। महासचिव बान की मून ने संदेश में जोर दे कर कहा है- दुनिया अपने विकास लक्ष्यों को तब तक 100 प्रतिशत हासिल नहीं कर सकती है जब तक कि इसके 50 प्रतिशत लोगों अर्थात् महिलाओं के साथ ‘‘सभी क्षेत्रों में पूर्ण और समान प्रतिभागियों के रूप में व्यवहार नहीं किया जाता है।’’
महासचिव बान की मून के इस संदेश की पुष्टि करते हुए, सहायक महासचिव लक्ष्मी पुरी जो संयुक्त राष्ट्र महिला की उप कार्यकारी निदेशक भी हैं, ने भी कहा कि लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण अपरिहार्य हैं।
विकास के लिए वित्तीय प्रबंधन पर विगत जुलाई में अपनाए गए अदिस अबाबा एजेंडे और विगत सितम्बर में 2030 के सतत विकास के एजेंडे के निष्कर्ष में यह बात दृढ़ता से दिखाई देती है।अदीस अबाबा एजेंडे का पहले अनुच्छेद में ही घोषणा की गई है-‘‘हम लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण प्राप्त कर के रहेंगे।’’
2030 के एजेंडे में इस बात को माना गया है कि लैंगिक असमानता सभी असमानताओं की जननी है जिसमें देशों के बीच और देशों के अंदर मौजूद असमानताएं शामिल हैं।
पिछले कुछ दशकों की तुलना में आज दुनिया भर में राजनीति में अधिक महिलाएं सक्रिय हैं। ‘‘यह प्रगति बहुत धीमी और असमान है।’’ किसी भी देश में महिलाओं के लिए पूर्ण समानता नहीं है। उन्होंने कहा कि औसतन पांच सांसदों में केवल एक महिला है। दुनिया भर में लगभग 20 महिलाएं राष्ट्रीय नेता हैं।
2030 के सतत विकास के एजेंडे में लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण की अनिवार्यता को पहली बार समझा गया है और इसकी पुष्टि की गई है। इस एजेंडे में कहा गया है, -‘‘यदि आधी मानव जाती को उसके पूर्ण मानवाधिकारों और अवसरों से वंचित रखा जाता है तो सतत विकास संभव नहीं है।’’ इसे शिखर सम्मलेन स्तर पर दुनिया के 193 देशों द्वारा अपनाया गया है।
यह लक्ष्य न केवल लैंगिक समानता को प्राप्त करने के बारे में है बल्कि समस्त महिलाओं और लड़कियों को सशक्त करने के बारे में है, इसमें इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘‘कोई भी पीछे न छूटे।’’
महिलाओं और लड़कियों के प्रति हर प्रकार के भेदभाव को क़ानून और व्यवहारिक रूप से समाप्त करना और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा को समाप्त करना सतत विकास के लक्ष्य हैं। इसी प्रकार महिलाओं द्वारा किये जाने वाले अवैतनिक देख-रेख के कार्यों का मूल्यांकन और नियोजन करना, आर्थिक, राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की बराबर की भागीदारी और नेतृत्व, उनके लैंगिक और प्रजननीय स्वास्थ्य और प्रजननीय अधिकारों की सार्वभौमिक सुनिश्चितता, संसाधनों तक सामान पहुंच, स्वामित्व और नियंत्रण और आर्थिक सशक्तिकरण भी सतत विकास के लक्ष्य हैं।
महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के अनुसार भारत सरकार लैंगिक समानता का लक्ष्य हासिल करने एवं महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के साथ उनके खिलाफ सभी तरह के भेदभाव को खत्म करने के लिए प्रतिबद्ध है। ‘कमिशन ऑन स्टेटस ऑफ वीमेन’ (सीएसडब्ल्यू) के 60वें सत्र के गोलमेज सत्र के दौरान मेनका ने कहा कि भारत ‘सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य’ हासिल करने को प्रतिबद्ध है और उसने पारदर्शी एवं जवाबदेह तंत्रों के जरिए महिलाओं एवं पुरूषों को बराबरी का मौका देते हुए उनके लिए समान अवसर सुनिश्चित करने के मकसद से आगे बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है।
महिला-नीत विकास के महत्व पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी कहा है कि महिलाओं को प्रौद्योगिकी सम्पन्न और जनप्रतिनिधि के तौर पर और प्रभावी बनना चाहिए क्योंकि केवल व्यवस्था में बदलाव से काम नहीं चलेगा। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने चैथे वैश्विक संसदीय स्पीकर सम्मेलन की आयोजन समिति की बैठक में कहा, ‘लैंगिक समानता को मुख्यधारा में लाना विकास के आदर्श के केंद्र में है। लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण को विकास प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है, खासकर ऐसे तरीकों से , जिनका गुणात्मक प्रभाव हो।’
स्त्री सशक्तीकरण ऐसा पहलू है, जिसके बिना कोई देश तरक्की नहीं कर सकता, लेकिन यह केवल कागजों में नहीं हकीकत में होना चाहिए। शुरुआत घर से हो, लेकिन इच्छाशक्ति राजनीतिक स्तर पर हो। तभी स्त्री सशक्तीकरण की दिशा में सार्थक प्रयास किए जा सकते हैं। अतः जरूरी है कि सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों एवं स्लम बस्तियों की महिलाओं में अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने के लिए ऐसी इकाइयां गठित की जाएं जो महिला-हित की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए मानसिक दृढ़ता का वातावरण निर्मित कर सकें। इस कार्य के लिए सरकारी और निजी संगठनों को परस्पर सहयोगी बनना होगा।
वैश्विक स्तर पर यदि महिलाओं की स्थिति दोयम दर्जे की है तो उसके लिए जितने जिम्मेदार पुरुष हैं, उसका आधा प्रतिशत जिम्मेदार स्वयं महिलाएं भी हैं। किसी भी सरकार की कोई भी योजना, किसी भी संगठन के कोई भी प्रयास तब तक कारगर नहीं हो सकते हैं जब तक कि प्रत्येक महिला आत्मशक्ति को नहीं पहचानेगी। वस्तुतः यदि महिलाएं सामाजिक प्रताड़ना की शिकार हैं तो उसका सबसे बड़ा कारण उनकी अपनी हिचक भी है। एक ऐसी हिचक जिसमें वे यह सोच कर रह जाती हैं कि ‘भला मैं क्या कर सकती हूं?’ कहने का आशय यही है कि समूचे विश्व में विशेष रूप से सुदूर ग्रामीण अंचल की महिलाओं को आत्मनिर्भर एवं शक्तिसम्पन्न बनाने के लिए सबसे पहले उनका आत्मविश्वास जगा कर उनमें जागरूकता लानी होगी। जमीनी स्तर पर यह काम सबसे पहले जरूरी है।
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Wednesday, May 18, 2016

चर्चा प्लस ….. कुंभ से विचार महाकुंभ तक ….. डॉ. शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh at International Vichar MahaKumbh, Ninora, Ujjain, MP - 12.05.2016
मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (18. 05. 2016) ..... My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....

चर्चा प्लस 
कुंभ से विचार महाकुंभ तक 
- डॉ. शरद सिंह
इन्दौर और उज्जैन के बीच निनोरा ग्राम में सामयिक तौर पर खेतों की ज़मीन का अधिग्रहण कर के एक ऐसा आयोजन स्थल बनाया गया जहां 42 देशों के विद्वानों को एक साथ बैठ कर उन सभी विषयों पर चिंतन, मनन करना था जिनके अभाव और असंतुलन से मनुष्य के भावी जीवन को खतरा दिखाई देने लगा है। मुझे भी इस अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ में शामिल होने का निमंत्रण मिला। एक उत्सुकता के साथ मैं भी निनोरा पहुंची। एक भव्य नखलिस्तान मेरे सामने था, बिलकुल किसी फिल्मी सेट की तरह जिसका बजट करोड़ों का हो। चिलचिलाती धूप और लपट भरी हवाओं के बीच पूर्ण वातानुकूलित आयोजन स्थल। विदेशी क्या देशी अतिथि विद्वानों को भी कोई कष्ट होने वाला नहीं था। मुख्यसभागृह के अतिरिक्त चार चिन्तन कक्ष बनाए गए थे जिनमें लगातार चर्चा-परिचर्चा होनी थी। विचार कुंभ के उद्घाटन के साथ ही चिन्तन-मनन का दौर आरम्भ हो गया। इसके बाद यह मानना ही पड़ा कि विचार महाकुंभ के आमंत्रण को स्वीकार करना मेरा सही निर्णय था। सदी के दूसरे सिंहस्थ में राज्य सरकार द्वारा युगों पुरानी विचार-मंथन की परम्परा को पुनर्जीवित करते हुए सामयिक विषयों पर विचार-विमर्श के लिये अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ का आयोजन निनोरा, उज्जैन में 12-14 मई को किया गया।
कुंभ की परिकल्पना भले ही धार्मिक विचारों से उपजी हो लेकिन प्रकृति के प्रति लगाव एवं निष्ठा इसका मूलमंत्र है। नदियांे के तट कुंभ आयोजनों के आदिस्थल माने गए हैं। इसलिए कुंभ में जब विचार महाकुंभ की संकल्पना को मूत्र्तरूप दिया गया तो उसके मेनीफेस्टो यानी ’’सार्वभौम अमृत संदेश’’ में मानव जीवन की रक्षा के लिए प्रकृति की सुरक्षा का आह्वान किया जाना लाजमी था। भले ही इस अमृत संदेश पर राजनीतिक कटाक्ष किए जाएं किन्तु यदि इस आयोजन में 42 देशों के विद्वान एक साथ बैठ कर नदी, तालाब, वृक्षों, कृषि, कुटीर उद्योगों और स्त्रियों की चिन्ता की जाए, स्थितियों को सुधारने के रास्ते ढूंढे जाएं तो आयोजन का उद्देश्य अच्छा ही कहा जाएगा। विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ महाकुंभ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है, जहां आकर व्यक्ति को आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण की अनुभूति होती है। सिंहस्थ महाकुंभ महापर्व पर देश और विदेश के भी साधु-महात्माओं, सिद्ध-साधकों और संतों का आगमन होता है। इनके सानिध्य में आकर लोग अपने लौकिक जीवन की समस्याओं का समाधान खोजते हैं। इसके साथ ही अपने जीवन को ऊध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना भी करता है। मुक्ति को अर्थ ही बंनधमुक्त होना है और मोह का समाप्त होना ही बंधनमुक्त होना अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अंतिम मंजिल है। ऐसे महापर्वों में ऋषिमुनि अपनी साधना छोड़कर जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं।
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। इसीलिए उज्जैन में सिंहस्थ के नाम से कुंभ का आयोजन होता है। पुराणों के अनुसार देवों और दानवों सहयोग से सम्पन्न समुद्र मंथन से अन्य वस्तुओं के अलावा अमृत से भरा हुआ एक कुंभ भी निकला था। देवगण दानवों को अमृत नहीं देना चाहते थे। देवराज इंद्र के संकेत पर उनका पुत्र जयन्त जब अमृत कुंभ लेकर भागने की चेष्टा कर रहा था, तब कुछ दानवों ने उसका पीछा किया। अमृत-कुंभ के लिए स्वर्ग में बारह दिन तक संघर्ष चलता रहा और उस कुंभ से चार स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं। यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक थे। इन स्थानों की पवित्र नदियों को अमृत की बूंदे प्राप्त करने का श्रेय मिला। क्षिप्रा के जल में अमृत की बूंद मिलने की घटना के संदर्भ में सिंहस्थ महापर्व उज्जैन में मनाया जाता है।
उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ में विचार महाकुंभ का आयोजन करना और एक ‘मेनीफेस्टो’ जारी करना राजनीतिक हलकों में खबली मचाए हुए है। सिंहस्थ-2016 का सार्वभौम अमृत संदेश दरअसल विचार महाकुंभ तथा उसके पूर्व आयोजित संगोष्ठियों में प्राप्त अनुशंसाओं तथा सुझावों के आधार पर तैयार किया गया है जिसके प्रति मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री आश्वस्त हैं कि सार्वभौम संदेश में निहित मार्गदर्शी सिद्धांत मानव के सम्यक एवं परिपूर्ण जीवन का मार्ग प्रशस्त करेंगे। यद्यपि कतिपय राजनीतिक परिसरों में इस बात को ले कर भी चर्चा-परिचर्चा चल रही है कि इस सिंहस्थ के बाद ‘शिवराज सरकार’ को कहीं अपनी सत्ता तो नहीं गंवानी पड़ेगी? क्यों कि यह कहा जाता है कि सिंहस्थ के बाद सत्ता परिवर्तन हो जाता है। इस तथाकथित ‘अपशकुन’ की परीक्षा भी आगामी चुनाव में हो जाएगी। बहरहाल, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह संतों का आशीर्वाद पा कर प्रसन्न और आश्वस्त हैं। वैसे, इसमें कोई संदेह नहीं है कि सिंहस्थ में प्रदेश शासन की ओर से व्यवस्थाओं को सुचारू बनाए रखने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी गई। अंाधी, पानी की आपदा आने से उत्पन्न अव्यवस्था पर जितनी तेजी से नियंत्रण पा लिया गया वह प्रशंसनीय है। यही तत्परता प्रशासन के प्रत्येक सोपान पर मिले तो आमजनता की सारी समस्याएं ही सुलझ जाएं।
सिंहस्थ महापर्व के प्रथम शाही स्नान के बाद से प्रतिदिन लगभग 25 -30 लाख श्रद्धालुओं ने धर्मलाभ लिया। रविवार एवं पर्व स्नान पर एक साथ लगभग 50 लाख से अधिक श्रद्धालु पहुंचे। सम्पूर्ण सिंहस्थ में आठ से दस करोड़ श्रद्धालुओं उज्जैन पहुंच कर कुंभ में शामिल होना किसी भी प्रबंधन के लिए एक बड़ी चुनौती कहा जा सकता है। चुनौती तो वे सारी समस्याएं भी हैं जिनके कारण ग्लोबलवार्मिंग जैसे संकट उत्पन्न हो गए हैं। इसीलिए सिंहस्थ अर्थात् कुंभ के अंतर्गत् अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ आयोजित किया गया जिसमें मानव जीवन, मानव-कल्याण के लिए धर्म, ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन, विज्ञान एवं अध्यात्म, महिला सशक्तीकरण, कृषि की ऋषि परंपरा, स्वच्छता एवं पवित्रता, कुटीर एवं ग्रामोद्योग विषयों पर भारत एवं विश्व भर के विभिन्न देशों से आए विद्वानों ने विचार विमर्श किया और उन विमर्शों से प्रेरित होकर मानव जीवन के लिए प्रासंगिक मार्गदर्शी सिद्धांतों को सिंहस्थ 2016 के ‘‘सार्वभौम अमृत संदेश’’ जारी किया गया। कुल 51 सूत्रीय ‘‘सार्वभौम अमृत संदेश’’ में मुख्य रूप से कहा गया है कि - संपूर्ण मानव जाति एक परिवार है। अतः सहयोग और अंतर्निर्भरता के विभिन्न रूपों को अधिकतम प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। विकास का लक्ष्य सभी के सुख, स्वास्थ्य और कल्याण को सुनिश्चित करना है। जीवन में मूल्य के साथ जीवन के मूल्य का उतना ही सम्मान करना जरूरी है। शिक्षा में मूल्यों के शिक्षण, व्यवहार एवं विकास का नियमित पाठ्यक्रम शामिल किया जाए, ताकि कम उम्र से ही बच्चों में उनका प्रस्फुटन हो सके। इस पाठ्यक्रम को अन्य विषयों की तरह समान महत्व दिया जाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम ऐसे आरंभिक प्लेटफार्म की तरह हो जिसके आस-पास शिक्षा का संपूर्ण पाठ्यक्रम विकसित किया जा सके। अस्वस्थ प्रतिस्पर्धात्मकता के स्थान पर सामाजिकता, अंतर्निर्भरता करुणा, मैत्री, दया, विनम्रता, आदर, धैर्य, विश्वास, कृतज्ञता, पारदर्शिता, सहानुभूति और सहयोग जैसे मूल्यों को बढ़ाने के लिए शिक्षा की पद्धतियों में यथोचित परिवर्तन किया जाए। मूल्यान्वेषण सिर्फ निजी विकास के लिए नहीं बल्कि समाज को एक व्यवस्था देने, संबंधों को संतुलित करने और जीवन प्रतिमानों का निर्माण करने के लिए जरूरी है। सर्वधर्म समादर की भावना विकसित करने के लिये शिक्षा में उपयुक्त पाठ्यक्रम सम्मिलित किये जायें। धर्म जहां हमें प्रेम, सहयोग, सामन्जस्य के पाठ के माध्यम से एक सूत्र में बांधता है, वहीं विस्तारवादी उद्देश्यों के लिए किये गये उसके दुरुपयोग से विश्वबंधुता का हनन होता है। धर्म यह सीख देता है कि जो स्वयं को अच्छा न लगे, वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। जियो और जीने दो का विचार हमारे सामाजिक व्यवहार का मार्गदर्शी सिद्धांत होना चाहिए।
इस अमृत संदेश में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पृथ्वी पर पर्यावरणीय संकट का समाधान सिर्फ प्रकृति के साथ आत्मीयता से प्राप्त होगा। इसके लिए देशज ज्ञान के विविध क्षेत्रों, जैसे कृषि, वानिकी, पारंपरिक चिकित्सा, जैव विविधता संरक्षण, संसाधन प्रबंधन और प्राकृतिक आपदा में महत्वपूर्ण सूचना स्त्रोत के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। पारिस्थितिकी की रक्षा के लिए अत्यधिक उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है। प्राकृतिक संसाधनों के अविवेकपूर्ण शोषण ने अनेक प्राकृतिक विपदाओं को जन्म दिया है। इसका संज्ञान लेते हुए ऐसी जीवन शैली एवं अर्थ-व्यवस्थाओं को विकसित करें जिनसे प्रकृति का पोषण हो।
विचार महाकुंभ में विश्व में स्त्रियों की घटती जनसंख्या और दुर्दशा पर भी चर्चा हुई। साथ ही विश्व में व्याप्त भीषण जल-संकट की गंभीरता को समझते हुए जल-संवर्धन की तकनीकों और प्रणालियों को प्रोत्साहित करने और पृथ्वी की जल-संभरता को क्षति पहुंचाने वाली प्रक्रियाओं को रोकने के उपायों पर भी निर्णय लिए गए। साधु-संतों ने भी वृक्षारोपण का संकल्प लिया। कुलमिला कर आशान्वित करने वाले निष्कर्षों एवं निर्णयों के साथ विचार महाकुंभ का समापन होना कुछ अच्छे संकेत छोड़ गया है बशर्ते उन संकेतों एवं प्रयासों के संकल्पों पर नौकरशाही की धूल न जमने पाए।
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Tuesday, May 17, 2016

लेख .... हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान - शरद सिंह

Dr (Miss) Sharad Singh


15.05.2016, ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित लेख आप सब से शेयर कर रही हूं आप भी इसे पढि़ए
 http://epaper.jansatta.com/c/10358806
(15.05.2016)
my article published in "Jansatta" news paper. Please read ....

लेख .... 
हाशिए की औरतों का आर्थिक योगदान 
- शरद सिंह
कामकाजी औरतों की चर्चा होते ही प्रायः उन स्त्रियों की छवि आंखों के आगे तैर जाती है जो किसी स्कूल, कार्यालय अथवा अन्य कार्यस्थलों में काम करती हैं और बदले में निश्चित वेतन पाती हैं। इसी तरह आर्थिक जगत का नाम आते ही कुछ नामचीन महिलाओं का स्मरण जाग उठना स्वाभाविक है। लेकिन उन औरतों पर प्रायः ध्यान नहीं जाता है जो कामकाजी की श्रेणी में प्रत्यक्षतः नहीं आती हैं किन्तु परिवार, समाज और देश के लिए उनका आर्थिक योगदान बहुत मायने रखता है। इनका कौशल इनकी व्यक्तिगत पहचान का दायरा भले ही सीमित क्षेत्र में सिमटा रहता है किन्तु इसके कौशल का लोहा सभी मानते हैं। ये औरतें उस हाशिए की औरतें हैं जहां उनकी मुख्य पहचान खंाटी घरेलू औरत की होती है। उद्यमिता के दृष्टिकोण से इस प्रकार की महिलाओं में से कुछ को कुटीर उद्योग तो कुछ को लघुउद्योग से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है किन्तु कुछ ऐसी भी हैं जो किसी भी श्रेणी में दिखाई न देती हुई भी अर्थोपार्जन करती रहती हैं।
Jansatta, 15.05.2016 ... Hashiye ki Auraton ka Arthik Yogdan - Dr Sharad Singh

देश में अनेक ऐसे लघु और कुटीर उद्योग हैं जिनकी बुनियाद घरेलू औरतों के श्रम पर टिकी हुई है। ये औरतें कामकाजी श्रेणी के खंाचे में नहीं आती हैं। ये अपना परिवार सम्हालती हैं, बच्चे पालती हैं, सभी नाते-रिश्ते, धार्मिक परम्पराएं तथा सामाजिक नियमों का सावधानीपूर्वक पालन करती हैं। यहां तक कि घरेलू हिंसा का शिकार भी होती रहती हैं फिर भी अपने परिवार के लिए चंद रुपये जुटाने के लिए अपने आराम के दो पल भी भेंट चढ़ा देती हैं। भले ही इनके श्रम को कोई महत्व नहीं मिलता, परिवार की ओर से भी इनके अर्थोपार्जन को महत्व नहीं दिया जाता, फिर भी ये काम करती हैं और पैसे कमाती हैं और वह भी सम्मानजनक तथा वैधानिक ढंग से।
भारत में घरेलू उद्योगों का दयारा गांवों व शहरों दोनों क्षेत्रों में फैला हुआ है। इसमें विभिन्न तरह के उत्पादन, कृषि, गैर कृषि आदि शामिल हैं। घरेलू उद्योग पुराना उद्योग है लेकिन नई आर्थिक नीतियों ने इसे प्रोत्साहित किया है। कृषि क्षेत्र में बढ़ रही अरुचि और गांवों में रोजगार के सीमित साधनों ने भी इस उद्योग को बढ़ावा दिया है। घरेलू कामगार अधिकतर महिलाएं व लड़कियां ही होती हैं। समाज में एक महिला की भूमिका उसके घरेलू कार्यों से ही आंकी जाती है। उस पर बच्चों की देखभाल और घर परिवार की सेवा का दायित्व होता है। इसलिए भी घरेलू उद्योग उसके अनुकूल रहता है। क्योंकि घर में रहते हुए आर्थिक गतिविधियों से जुड़ने पर उसके घरेलू, सामाजिक दायित्व ज्यादा प्रभावित नहीं होते। जैसे एक बीड़ी लपेटने का काम करने वाली महिला अपना यह काम करते हुए छोटे बच्चे को स्तनपान भी करा सकती है। सामाजिक प्रचलन भी महिला को घर बैठ कर काम करने को बढ़ावा देते हैं।
बीड़ी बनाने का कार्य दो स्तरों पर होता है। पहले स्तर पर बीड़ी बनाने के लिए तेंदूपत्ता जुटाना होता है जिससे बीड़ी को आकार दिया जाता है। दूसरे स्तर पर बीड़ी लपेटने और उन पर ‘झिल्ली’ लगाने का काम होता है। बीड़ी निर्माण की सकल प्रक्रिया दो भागों में बंटी होती है- तेंदूपत्ता संग्रहण तथा बीड़ी लपेटना। इन दोनों कार्यों में पैंसठ से पचहत्तर प्रतिशत स्त्रियां कार्य करती हैं। ये स्त्रियां जिन जीवन-दशाओं में रह कर कार्य करती हैं उन्हें निकट से देखने, जानने और अनुभव करने के बाद एक बात साक्ष्यांकित हो जाती है कि स्त्रियों में असीमित सहनशक्ति एवं परिवार के प्रति समर्पण की भावना होती है। देश में कई ऐसी निजी संस्थाएं हैं जो तेंदूपत्ता संग्रहण में लगे श्रमिकों के पक्ष में संघर्षरत हैं। जैसे आस्था नामक संस्था सन् 1986 से संघर्ष कर रही है। इस संस्था के प्रयासों से सन् 1990 में कोटरा, राजस्थान में तेंदूपत्ता संघर्ष समिति का गठन किया गया जिसने तेंदूपत्ता संग्रहण करने वाले श्रमिकों को दिए जाने वाले पारिश्रमिक में बढ़ोत्तरी कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अहमदाबाद की सेवा संस्था भी एक ऐसी निजी संस्था है जिसकी शाखाएं देश भर में फैली हुई हैं। सेवा तेंदू पत्ता संग्रहकर्ता औरतों के हितों के लिए भी समय-समय पर संघर्ष करती रहती है। विभिन्न राज्यों में स्थानीय स्तर पर विभिन्न श्रम संगठन भी इन औरतों के अधिकार के लिए आवाज उठाते रहते हैं। वर्ष 1991 की जनगणना के अनुसार अकेले मध्यप्रदेश की कुल मुख्य कार्यशील जनसंख्या में महिलाओं का प्रतिशत लगभग 26.3 प्रतिशत था। तेंदू पत्ता संग्रहण तथा बीड़ी बनाने के अतिरिक्त अगरबत्ती उद्योग में भी महिलाओं की बड़ी संख्या कार्यरत है।
अगरबत्ती की मांग लगभग हर घर में होती है। घर को सुगंधित करना हो या फिर पूजा करने के लिए अगरबत्ती की आवश्यकता पड़ती है। घर बैठी महिलाओं के लिए यह स्वरोजगार के रूप में कमाई का महत्वपूर्ण साधन बन चुका है। अगरबत्ती के प्रति पैकेट उत्तमता के अनुसार एक रूपये से लेकर 100-150 रूप्ये तक बिकते हैं। इस काम के लिए किसी विशेष शिक्षा अथवा दक्षता की आवश्यकता नहीं होती है। काम करने की ललक ही सबसे बड़े कौशल के रूप में दक्षता दिलाता है। कम पढ़ीलिखी अथवा अशिक्षित महिलाएं भी अगरबत्ती बनाने के काम में निपुण साबित होती हैं।
अचार, पापड़ और चिप्स आदि बनाने के कार्य में 95 प्रतिशत महिलाएं संलग्न होती हैं। ये महिलाएं अपने घरेलू दायित्वों के साथ बड़ी कुशलता के साथ इन कार्यों को करती हैं। उदाहरण के लिए पापड़ उद्योग को ही ले लिया जाए। महिलाओं को पापड़ के लिए सामग्री दी जाती है। उन्हें घर जाकर सिर्फ बेलने का काम करना पड़ता है। इस काम में प्रत्येक महिला एक हजार से तीन हजार रूपए प्रतिमाह तक कमा लेती है। मसालों को साफ कर, पीसकर तथा पैक करने में जो महिलाएं अपना योगदान करती हैं, वे भी अप्रत्यक्ष रूप से देश के कुटीर एवं लघु उद्योग को सुदृढ़ता प्रदान करती हैं।
केन्द्र एवं राज्य सरकारों की ओर से विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत स्वसहायता समितियों के गठन को प्रोत्साहन तथा आर्थिक सहायता भी दी जाती है। इनके अंतर्गत उन औरतों को एक समूह के रूप में संगठित होने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है जो अकेली घर से निकलने, किसी पराए पुरुष से बात करने तथा घरेलू कार्यों से इतर काम करने से झिझकती हैं। ऐसी औरतें आपस में मिल कर परस्पर एक-दूसरे का सहारा बनती हैं तथा एक-दूसरे के लिए प्रेरक का काम करती हैं। ये वही औरतें हैं जो घरेलू स्तर पर मसाला बनाने के व्यवसाय में कामगार की भूमिका निभाती हैं, ये वही औरतें हैं जो अचार और बड़ियां बनाती हैं, ये वही औरतें हैं जो लखनऊ के चिकन का कशीदा, वाराणसी का जरी उद्योग, जयपुर की रजाइयां और बंधनी में अपना योगदान देती हैं। यूं भी सलवार, कमीज, लहंगे-चुन्नी, रेडीमेड कपड़ों इत्यादि सभी पर कढ़ाई का प्रचलन हमेशा ही रहा है। मोमबत्ती और टेराकोटा की सजावटी वस्तुएं बनाने के कार्य में भी घरेलू औरतों का पुरुषों से अधिक प्रतिशत रहता है। बांस, नारियल के रेशे, जूट आदि से उपयोगी सामान बनाने का कार्य महिलाएं घर बैठे करती हैं तथा अपने परिवार को आर्थिक मदद करती हैं।
बढ़ती हुई महंगाई के इस जमाने में जितना भी धन कमाया जाए वह परिवार के गुजारे के लिए अपर्याप्त है । यदि बच्चों को उचित शिक्षा दिलानी है या अपने परिवार का सामाजिक व आर्थिक स्तर ऊंचा उठाना है तो महिलाओं को आगे आना ही पड़ता है। देश में सामाजिक, पारिवारिक ढांचा तथा शैक्षिक स्तर अभी भी प्रत्येक महिला को पूर्णरूप से कामकाजी बनने का वातावरण मुहैया नहीं कराता है। ऐसी स्थिति में अपने पारिवारिक दायित्वों से समय बचा कर, घर में ही काम करते हुए चार पैसे कमाने का रास्ता इन औरतों का सहारा बनता है। इन महिलाओं को भले ही कामकाजी न कहा जाए अथवा इनके आर्थिक योगदान को रेखांकित नहीं किया जाए फिर भी दैनिक जीवन में काम आने वाली अनेक वस्तुएं इन्हीं के श्रम और कौशल से निर्मित होती हैं। दरअसल, चाहे सफाई के काम में आने वाली झाडू हो, ड्राइंगरूम को सजाने वाली वस्तुएं अथवा फैशन की दुनिया में रैम्प पर जगमगाते वस्त्रों का रंग और पैटर्न हो, ये सब आर्थिक जगत के हाशिए पर मौजूद इन औरतों का महत्वपूर्ण किन्तु मौन योगदान होता है।
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My views on Vichar Mahakumbh in "Peoples Samachar"

My views on Vichar Mahakumbh in "Peoples Samachar", Indore Edition,14. 05. 2016 ...
Peoples Samachar, Indore Edition 14. 05. 2016

Dr Sharad Singh's participation in Simhastha International Convention on Women Empowerment

सिंहस्थ 2016 में अंतर्राष्ट्रीय विचार महाकुंभ में डॉ. शरद सिंह का व्याख्यान ....
Aacharan,  Sagar Edition, 10.05.2016

Naidunia,  Sagar Edition, 10.05.2016

Dainik Bhaskar, Sagar Edition, 10.05.2016

Patrika, Sagar Edition, 10.05.2016
 

चर्चा प्लस .... बच्चों की तस्करी का घृणित कारोबार - डाॅ. शरद सिंह


मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (10. 05. 2016) .....
 

My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....

 


चर्चा प्लस ...
बच्चों की तस्करी का घृणित कारोबार 
 - डाॅ. शरद सिंह

इटारसी जंक्शन पर एक मई रात 10:15 बजे प्लेटफार्म नंबर-5 पर रक्सौल-जनसाधारण एक्सप्रेस की 3 बोगियों से इटारसी जंक्शन पर 61 बच्चे बरामद किए गए। इसी ट्रेन से खंडवा में 10 बच्चे और उतारे गए। सभी बच्चे बिहार के हैं। इन बच्चों को बंधुआ बाल मजदूरी कराने नासिक और मुंबई भेजा रहा था। जहां टमाटर की लोडिंग में इन बच्चों को पांच-छह हजार रुपए की मजदूरी पर लगाया जाना था। ये बच्चे 24 घंटे से भूखे-प्यासे सफर कर रहे थे। बरामद हुए ने बताया कि एक दिन पहले शाम को बिहार में ट्रेन पर चढ़ाए गए थे। उन्हें काम कराने ले जाया जा रहा था। चाइल्ड लाइन से मिली सूचना पर इटारसी जंक्शन पर खंडवा और इटारसी की जीआरपी फोर्स, आरपीएफ का डॉग स्क्वाड और चाइल्ड लाइन की टीम ने ट्रेन आते ही बोगियों की सर्चिंग शुरू कर दी थी। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
नशीली दवाओं और हथियारों के कारोबार के बाद मानव तस्करी विश्व भर में तीसरा सबसे बड़ा संगठित अपराध है। भारत को एशिया में मानव तस्करी का गढ़ माना जाता है। यूनाइटेड नेशन्स ने एक रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव तस्करी का बड़ा बाजार बन चुका है और देश की राजधानी दिल्ली मानव तस्करों की पसंदीदा जगह बनती जा रही है, जहां देश भर से बच्चों और महिलाओं को लाकर आसपास के राज्यों के साथ ही विदेशों में भी भेजा जा रहा है। इस रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया कि भारत में वर्ष 2009 से 2011 के बीच लगभग 1,77,660 बच्चे लापता हुए जिनमें से 1,22,190 बच्चों को पता चल सका, जबकि अभी भी 55 हजार से ज्यादा बच्चे लापता हैं जिसमें से 64 प्रतिशत यानी लगभग 35,615 नाबालिग लड़कियां हैं। वहीं इस बीच लगभग 1 लाख 60 हजार महिलाएं लापता हुई जिनमें से सिर्फ 1 लाख 3 हजार महिलाओं का ही पता चल सका। वहीं लगभग 56 हजार महिलाएं अब तक लापता हैं।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश में हर 8 मिनट में एक बच्चा लापता हो जाता है। सन् 2011 में लगभग 35,000 बच्चों की गुमशुदगी दर्ज हुई जिसमें से 11,000 से ज्यादा तो सिर्फ पश्चिम बंगाल से थे। इसके अलावा यह माना जाता है कि कुल मामलों में से केवल 30 प्रतिशत मामले ही रिपार्ट किए गए और वास्तविक संख्या इससे कहीं अधिक है। न्यूयाॅर्क टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के झारखंड राज्य में मानव तस्करी समस्या लगातार बढ़ती जा रही है। टाइम्स आॅफ इंडिया द्वारा की गई पड़ताल के अनुसार मानव तस्करी के मामले में कर्नाटक भारत में तीसरे नंबर पर है। अन्य दक्षिण भारतीय राज्य भी मानव तस्करी के सक्रिय स्थान हैं। चार दक्षिण भारतीय राज्यों में से प्रत्येक में हर साल ऐसे 300 मामले रिपोर्ट होते हैं। जबकि पश्चिम बंगाल और बिहार में हर साल औसतन ऐसे 100 मामले दर्ज होते हैं। आंकड़ों के अनुसार, मानव तस्करी के आधे से ज्यादा मामले इन्हीं राज्यों से हैं। मध्यप्रदेश भी मानव तस्करों की दृष्टि से बचा नहीं है। मध्यप्रदेश से भी बच्चों के गायब होने की रिपोर्ट लगातार विभिन्न थानों में दजऱ् कराई जाती है।
दरअसल, ग्रामीण अंचल के बच्चों को उनकी पारिवारिक गरीबी का लाभ उठाते हुए, उन्हें नौकरी का लालच दे कर अथवा उनके मां-बाप से उन्हें खरीद कर अवैधानिक रूप से काम कराने एक राज्य से दूसरे राज्य ले जाया जाता है। इस तस्करी के धंधे पर नज़र रख रही पुलिस का मानना है कि वे रेलवे जंक्शन एवं बस अड्डे सबसे अधिक संवेदनशील है जहां कई राज्यों की रेलें अथवा बसें अवागमन करती हैं। ऐसे स्थानों में मानव तस्करों को स्थानीय पुलिस की सीमा से बच निकलने में सुगमता रहती है। इसी दृष्टिकोण से इटारसी जंक्शन को अतिसंवेदनशील जंक्शन माना गया है। कथित रूप से खरीदे गए अथवा काम देने के बहाने ले जाए जाते हैं और उन्हें पटाखे बनाने के कारखानों, माचिस कारखानों, रंगाई, छपाई का काम करने वाली कपड़ा मिलों, ईंट के भट्टों पर काम कराने, घरेलू नौकर के रूप में अथवा भीख मांगने वाले संगठनों के पास बेच दिया जाता है। इन स्थानों में उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता है जबकि उनसे कमर तोड़ काम लिया जाता है। ऐसी कठिन परिस्थितियों में अधिकांश बच्चे बालिग होने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। बच्चों को मुख्य रूप से जिन ग्रामीण क्षेत्रों से कथित रूप से खरीद कर यौन शोषण और बंधुआ मजदूरी के लिए बेचा जाता है उन क्षेत्रों में मानव तस्कर अकसर ऐजेंट के रूप में काम करते हैं। यह ऐजेंट प्रायः स्थानीय निवासी होता है जिससे बच्चों के माता-पिता को विश्वास में लिया जा सके। ऐजेंट इनके माता पिता को पढ़ाई, बेहतर जिंदगी और पैसों का लालच देते हैंऔर उन्हें बच्चों को अपने साथ भेजने के लिए राजी कर लेते हैं। गांव से बाहर ले जाने के बाद बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय अन्य तस्करों के हाथों पहुंचा दिया जाता है। जहां से उन्हें कार्यस्थलों के लिए बेच दिया जाता है। तस्करी में लाई गई लड़कियों को यौन शोषण के लिए भी बेचा जाता है। ऐसे मामले भी सामने आए हैं जिनमें लड़कियों को उन क्षेत्रों में शादी के लिए मजबूर किया गया जहां लड़कियों का लिंग अनुपात लड़कों के मुकाबले बहुत कम है।
मानव तस्करों द्वारा बच्चों की तस्करी किए जाने की दर बहुत अधिक है। इस बात से ही इस तथ्य का अनुमान लगाया जा सकता है कि एक सप्ताह के भीतर देश के विभिन्न हिस्सों में बच्चों की तस्करी के तीन बड़े मामले प्रकाश में आए। इसी वर्ष, 23 अप्रैल 2016 दो नाबालिग सहित चार आदिवासी लड़कियों को अवैध रूप से ओडिशा के कंधमाल जिले से तमिलनाडु ले जाते हुए पांच लोगों को गिरफ्तार किया गया। लड़कियों को घर भेज दिया गया। मानव तस्करों ने कथित तौर पर लड़कियों को एक कताई मिल में काम दिलाने का प्रलोभन दिया था। उनके तमिलनाडु में रहने के दौरान अच्छा पारिश्रमिक और रहने की व्यवस्था का भरोसा दिया था। इसके कुछ ही दिन बाद, 30 अप्रैल 2016 को क्राइम ब्रांच की ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट ने गोरखपुर में मानव तस्करी के एक गिरोह को धरदबोचा। यूनिट ने गोरखपुर रेलवे स्टेशन पर एक मानव तस्कर को गिरफ्तार कर उसके शिकंजे से 12 साल से कम उम्र के 5 बच्चों को बरामद किया। पकड़े गए तस्कर ने बताया कि वह इन बच्चों को पश्चिमी चंपारण से गुजरात में काम कराने के लिए ले जा रहा था। बरामद किए गए बच्चों ने पुलिस को बताया कि तस्करों ने उन्हें उनके घरों से ही पकड़ लिया था। उनमें से पांच बच्चे एक ही गांव के थे। उन बच्चों को अहमदाबाद में कपड़े का काम करने के लिए ले जा रहे थे। क्राइम ब्रांच की ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट टीम के अनुसार उन बच्चों को जबर्दस्ती ले जाने वालों में से एक उत्तरप्रदेश के देवरिया जिला का रहने वाला था, जो उन लोगों को पश्चिम चंपारण से लेकर आ रहा था। मुखबिर की सूचना पर ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट टीम ने इन लोगों को गिरफ्तार किया। बचाए गए बच्चे चाइल्ड लाइन को सौंप दिए गए। इसी क्रम में एक मई 2016 को इटारसी और खंडवा का मामला सामने आया। यह दर बच्चों की सुरक्षा और उनके सुखद बचपन की दृष्टि से चिन्ता में डालने वाली है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार एशिया-पेसिफिक क्षेत्र में 11.7 मिलियन से ज्यादा लोग बंधुआ मजदूर के तौर पर कार्य कर रहे हैं। पैसों की तंगी झेल रहे लोग, पैसों के बदले में अक्सर अपने बच्चों को बेच देते हैं। इन मामलों में लड़के और लड़कियां दोनों को बेच दिया जाता है और उन्हें सालों तक भुगतान नहीं किया जाता। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मानव तस्करी के विरोध में आवाजे़ं भी उठती रहती हैं। वेटिकन सिटी में 9 अप्रैल 2016 को संत फ्रांसिस ने संयुक्त राष्ट्र में स्थायी पर्यवेक्षक महाधर्माध्यक्ष बेर्नादितो औजा को आधुनिक युग की गुलामी और मानव तस्करी विषय पर एक पत्र भेजा था जिसमें उन्होंने कहा था कि- ‘‘मैं आप लोगों को सहयोग और संचार के अनुबंध को सुदृढ़ करने का प्रोत्साहन देता हूं जो अनेक स्त्री, पुरूष तथा बच्चों के कष्टों का अंत करने के लिए आवश्यक है जो आज गुलाम बना लिए गये हैं तथा वस्तुओं की तरह बेचे जाते हैं।’’
बच्चे चाहे अमीर के हों या गरीब के हो, बचचे आखिर बच्चे ही होते हैं, निर्दोष और मासूम।वे देश का भविष्य होते हैं। अतः उनकी सुरक्षा कसनून के साथ-साथ प्रत्येक नागरिक का भी कत्र्तव्य होना चाहिए। बच्चों को मानव तस्करों के बचाने के लिए कानून को और अधिक कड़ा करने और नागरिकों को ‘व्हिसिल ब्लोअर’ बनने की आवश्यकता है। यदि इस दिशा में कठोर निर्णय नहीं लिए गए तो देश बच्चों की तस्करी के घृणित कारोबार के कलंक को इसी तरह ढोता रहेगा और हजारों मासूम अपने बचपन को कभी जान ही नहीं पाएंगे।
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Friday, May 6, 2016

चर्चा प्लस ... राजनीतिक चश्मे से राष्ट्रवाद को देखने की आदत - डाॅ. शरद सिंह


मेरा कॉलम 'चर्चा प्लस’ "दैनिक सागर दिनकर" में (06. 05. 2016) .....
My Column “ Charcha Plus” in "Dainik Sagar Dinkar" .....
चर्चा प्लस ...... 
 

राजनीतिक चश्मे से राष्ट्रवाद को देखने की आदत ...
- डाॅ. शरद सिंह
आमतौर पर यह माना जाता है कि राष्ट्रवाद एक विचारधारा या भावना के रूप में ब्रिटिश शासन से पहले अस्तित्व में नहीं था। राष्ट्रवाद का उदय स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान हुआ। भरतीय राष्ट्रवाद के संदर्भ में यह विचार उचित जान पड़ता है। औपनिवेशिक ‘साम्राज्यवादी’ कैंब्रिज स्कूल मानता है कि साम्राज्यवाद, सभ्यता तथा सामाजिक सुधारों के साथ भारत आया। साम्राज्यवादी स्कूल के अनुसार राष्ट्रवादी वह लोग थे जिन्होंने जाति तथा धार्मिक पहचानों के आधार पर समूह निर्माण किया। माक्र्सवादी स्कूल भारतीय इतिहासलेखन भारतीय राष्ट्रवाद के वर्ग चरित्र की आलोचना करता है। उनके अनुसार भारतीय राष्ट्रवाद विरोधाभासी और द्वैधवृत्तिक है। राष्ट्रवादी इतिहासलेखन के उपाश्रित स्कूल ने भी राष्ट्रवाद की शोषणकारी तथा प्रभुत्ववादी विचारधारा के रूप में व्याख्या की है। बहरहाल, विद्वानों द्वारा राष्ट्रवाद की दी गई परिभाषाओं एवं सिद्धांतों के तर्क-वितर्क में उलझने के बदले मैं आम बोलचाल के शब्दों में राष्ट्रवाद को परिभाषित करना चाहूंगी कि -‘‘राष्ट्रवाद वह विचार , वह भावना है जो किसी भी व्यक्ति को अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करती है।’’ इसीलिए जब राष्ट्र के प्रति समर्पित व्यक्तित्वों को लोग पूर्वाग्रह से भर कर देखते हैं तो सोचना पड़ता है कि अपने राष्ट्र के प्रति आत्मोत्सर्ग की भावना रखने वाले व्यक्ति, चाहे वे जिस दल-विशेष के साथ रह कर राष्ट्र के प्रति समर्पित रहे हों, क्या उनके अवदान को कम कर के आंका जा सकता है? पंडित दीन दयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, वल्लभ भाई पटेल, मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी ने यदि देशहित एवं देश सेवा को अपने जीवन का उद्देश्य बनाया तो क्या उनकी राष्ट्रवादिता पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है? देश सेवा के रास्ते अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन उद्देश्य तो एक ही रहता है जो किसी भी प्रकार से लांछन की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए। क्या देश के प्रति अपने प्राणों की बलि देने वाले शहीद भगत सिंह और महात्मा गांधी के अवदान को तुलनात्मक रूप से कम या ज्यादा माना जा सकता है? एक सशस्त्र विरोध में विश्वास रखता था तो दूसरा अहिंसा में। दोनों के रास्ते अलग थे लेकिन उद्देश्य तो एक ही था, देश को स्वतंत्राता दिलाना। लेकिन अंग्रेजों ने जो फूट के बीज बोए वे राष्ट्रवाद के विचार को भी अनेक टुकड़ों में बांटने से बाज नहीं आते हैं। 
Charcha Plus Column of Dr Sharad Singh in "Sagar Dinkar" Daily News Paper
जब राष्ट्रवाद के प्रति चिन्तन पूर्वाग्रह से भरा हो। जितने राजनीतिक चश्मे, उतने ही राष्ट्रवाद के मायने। इसका चैंकाने वाला अनुभव मुझे स्वयं भी हुआ। जब ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व’’ श्रृंखला की मेरी छः किताबें प्रकाशित हुईं। जिनमें ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: दीन दयाल उपाध्याय’’। पर मेरे एक परिचित प्रोफेसर साहब की प्रतिक्रिया थी कि -‘‘अरे, मुझे नहीं मालूम था कि आप संघ विचारधारा की हैं।’’ तब मैंने उनसे पूछा कि मैंने तो ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: वल्लभ भाई पटेल’’ और ‘‘राष्ट्रवादी व्यक्तित्व: महात्मा गांधी’’ भी लिखी है, फिर आपके अनुसार मेरी विचारधारा क्या होनी चाहिए? वे खिसियानी हंसी हंस कर रह गए। लेकिन एक चुभता हुआ प्रश्न छोड़ गए मेरे लिए। राष्ट्रवाद क्या है? क्या राष्ट्रवाद को अलग-अलग राजनीतिक चश्मे से देखा जाना उचित है?
वामपंथियों के लिए राष्ट्रवाद की परिभाषा अलग है तो दक्षिणपंथियों के लिए अलग। लिहाजा जब एक राष्ट्र के प्रति वादों में भिन्नता होगी तो विवाद होंगे ही। लेकिन विवाद की भी अपनी अर्थवत्ता होनी चाहिए। अपनी राजनीतिक विचारधारा के वशीभूत किसी शहीद को ‘‘आतंकवादी’’ ठहराना, वह भी इस दौर में जब आतंकवाद अपने सभी वीभत्स रूपों में आए दिन हमारे सामने प्रकट हो रहा हो, इस बात पर पुनर्विचार करने को विवश करता है कि क्या हम राजनीतिक धरातल पर वैचारिक विचलन के आदी होते जा रहे हैं?
अभी हाल ही में शहीद भगत सिंह को ले कर एक विवाद सामने आया। इस विवाद का मंच एक बार फिर जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय रहा। दिल्ली यूनिवर्सिटी के इतिहास के पाठ्यक्रम में शामिल एक किताब में भगत सिंह को एक ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ बताया गया है। इतिहासकार बिपिन चन्द्रा और मृदुला मुखर्जी द्वारा ‘इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ शीर्षक से लिखी गई इस पुस्तक के 20वें अध्याय में न केवल भगत सिंह को बल्कि चन्द्रशेखर आजाद, सूर्य सेन को भी ‘‘क्रांतिकारी आतंकवादी’’ बताया गया है। उल्लेखनीय है कि यह पुस्तक दो दशकों से अधिक समय से डीयू के पाठ्यक्रम का हिस्सा रही है। इतिहास विभाग में इस पुस्तक को एक ‘संदर्भ पुस्तक’ के तौर पर पढ़ाया जाता है। इस पुस्तक में चटगांव आंदोलन को भी ‘आतंकी कृत्य’ करार दिया गया है, जबकि अंग्रेज पुलिस अधिकारी सैंडर्स की हत्या को ‘आतंकी कार्रवाई’ कहा गया है। शहीद भगत सिंह के परिजनों को जब इस बात का पता चला तो वे स्तब्ध रह गए और उन्होंने ने इस पर आपत्ति जताई। शहीद भगतसिंह को ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ के रूप में उल्लेख किए जाने पर विरोध के अनेक स्वर उठ खढ़े हुए। मामले को संज्ञान में लेते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने डीयू से इस पर पुनर्विचार करने को कहा।
वामपंथी और दखिणपंथी दो फड़ में बंट गए लेकिन इन सबके बीच हताहत हुई जनभावना। जब विरोध के स्वर मुखर हुए तो पुस्तक के लेखकों के पक्ष में भी तर्क सामने आए। जेएनयू के प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने अपने एक विस्तृत लेख में लिखा कि- ‘‘दिल्ली यूनिवर्सिटी में रेफरेंस बुक के तौर पर पढ़ाई जा रही किताब ‘इंडियाज स्ट्रगल फॉर इंडिपेंडेंस’ को लेकर छिड़ा विवाद आधारहीन है। इस आरोप में दम नहीं है कि इस किताब में भगत सिंह को आतंकवादी बताकर उनकी निंदा की गई है। साल 1988 में प्रकाशित इस किताब को पांच इतिहासकारों की एक टीम ने तैयार किया है, जिसमें विपिन चंद्र के अलावा मृदुला मुखर्जी, के एन पानिकर, सुचेता महाजन और इन पंक्तियों का लेखक शामिल है। विपिन चंद्र ने जब पहली बार ‘रिवॉल्यूशनरी टेररिस्ट’ शब्द का इस्तेमाल किया था, तब साथ में यह विशेष रूप से लिखा कि- हम इस शब्द का इस्तेमाल आलोचना के रूप में नहीं कर रहे, यह कोई अपमानजनक शब्द नहीं है, भगत सिंह को हम कोई गाली नहीं दे रहे, बल्कि उन्हें क्रांतिकारी बता रहे हैं। मगर अब मुश्किल यह हो गई है कि उस दौर के ‘आतंकवाद’ और आज के ‘आतंकवाद’ में घालमेल कर दिया गया है। हम ‘क्रांतिकारी आतंकवादी’ और आज के उन्मादी आतंकवादी के बीच के फर्क को नहीं समझ रहे।’’ प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी ने आगे लिखा है कि -‘‘असल में, भगत सिंह उस रूप में आतंकवादी नहीं थे, जिस रूप में हम आज आतंकवाद को समझते हैं या कुछ राजनेता हमारे सामने परोसने की कोशिश कर रहे हैं। इस किताब में उनके लिए इसलिए यह शब्द इस्तेमाल किया गया, क्योंकि वह हिंसा का इस्तेमाल किया करते थे।’’
यहां उल्लेखनीय है कि प्रोफेसर आदित्य मुखर्जी स्वयं मानते हैं कि उस दौर के आतंकवाद और आज के आतंकवाद में अन्तर है। उनके द्वारा लिखे गए ‘उन्मादी आतंकवाद’ और ‘क्रांतिकारी आतंकवाद’ के शब्दों के अन्तर को आज कैसे समझाया जा सकता है जबकि आज आतंकवाद का मात्र एक ही अर्थ है-अमानवीय नृशंसता। शब्दों के खेल और पूर्वाग्रह का धरातल हमारे उन शहीदों को लांछित कर रहा है जिनका एकमात्र उद्देश्य देश को स्वतंत्र कराना था। वे मात्र आतंक अर्थात् भय का संचार करने के लिए किसी को मारने में विश्वास नहीं रखते थे। उन शहीदों ने जिस रास्ते को अपनाया था उसके लिए बहुप्रचलित शब्द ‘गरमदल’ सटीक बैठता है। स्वतंत्रता सेनानी के भतीजे अभय सिंह संधू ने कहा कि ’’भगत सिंह को फांसी पर लटकाने वाले अंग्रेजों ने अपने फैसले में भी आतंक या आतंकवादी जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया। विवाद पैदा करने के उद्देश्य से क्रांतिकारियों के इस तरह के शब्दों का उपयोग करना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है।’’ आतंकवाद आज पूरी तरह से कलंकित शब्द बन चुका है। अतः किसी व्यक्ति विशेष के संदर्भ में इसका उपयोग करते समय सावधानी बरतना जरूरी है। इस शब्द के साथ भले ही कोई भी विशेषण जोड़ दिया जाए किन्तु यह शब्द सामने आते ही नृशंसता के दृश्य आंखों के सामने तैरने लगते हैं। पूर्वाग्रह के चलते, शब्दों के चयन में त्रुटि की संभावना बढ़ जाती है जबकि इस विचलन से सतर्क रहना जरूरी है।
आज जब हम एक ओर वैश्विक बंधुत्व को अपना रहे हैं तो और भी जरूरी हो जाता है कि राष्ट्रवाद के प्रति अपने दृष्टिकोण को भी विस्तार दें। देश तथा देश भक्तों पर होने वाले विवादों पर पूर्णविराम लगाएं क्यों कि ऐसे विवादों से राष्ट्र का कोई भला होने वाला नहीं है। किसी राष्ट्र में भिन्न राजनीतिक विचारों का एक साथ सक्रिय होना राजनीतिक लोकतंत्र के लिए सुखद हो सकता है किन्तु यदि ये वैचारिक मतभेद अपनी श्रेष्ठता साबित करने की अंधी होड़ में राष्ट्र और राष्ट्रवाद की अस्मिता पर उंगली उठाने लगें तो परिणाम दुखद ही रहते हैं। क्योंकि इससे वैश्विक पटल पर भी राष्ट्र की छवि खराब होती है।

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