Monday, March 19, 2012

पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में फिल्मों का जनमत



- डॉ. शरद सिंह


         पाकिस्तान में जातीय कट्टरता के कारण औरतों के अधिकारों के बारे में सबसे अंत में की अनुमति नहीं देता है। वहां की सामाजिक व्यवस्था औरतों को हर समय पुरुषों की अनुमति नहीं देता है। वहां की सामाजिक व्यवस्था औरतों को हर समय पुरुषों के आदेश के नीचे देखने की आदी है। यदि पुरुष कहे कि बैठ तो बैठो, यदि पुरुष कहे कि खड़ी रह तो खड़ी रहो। यह वातावरण कबीलियाई क्षेत्रों में और अधिक भयावह रूप में दिखाई देता है। पाकिस्तान के आंचलिक कबीलियाई क्षेत्रों में औरत की जो स्थिति है उसका बखूबी विवरण वहीं के फिल्म निर्माता शोएब मंसूर ने सन्‌ २०११ में अपनी एक फिल्म "बोल" के माध्यम से सामने रखा था। इस फिल्म ने जो मूलतः उर्दू भाषा में थी, भारतीय सिनेमाघरों में भी पर्याप्त भीड़ जुटा ली थी क्योंकि हर भारतीय पाकिस्तानी समाज के सच को देखना और जानना चाहता था तथा उसमें सकारात्मक परिवर्तन चाहता है। इसीलिए भारतीय दर्शकों ने भी "बोल" का खुलेदिल से स्वागत किया था। 
                              
         इस फिल्म में जैनब नाम की एक युवती के संघर्ष की कहानी थी। इसमें यह भी दिखाया गया था कि एक बेटे के जन्म की प्रतीक्षा में बेटियों को जन्म देती हुई औरत किस प्रकार टूटती जाती है। पुत्र के जन्म की आशा जैनब के रूप में पुत्री के पैदा होने पर पिता को क्रोध से भर देती है और मां को भयभीत कर देती है। जैनब का अपना भाग्य भी पुरुषप्रधान कट्टरपंथी समाज से जूझते हुए जीवन बिताने पर निर्धारित होता है। उसे एक बार घुटन भरे वातावरण से पलायन करने का अवसर मिलता है वह भागने का प्रयास भी करती है किंतु अंतिम समय में अपना इरादा बदल कर समूचे सामाजिक वातावरण को बदलने का बीड़ा उठा लेती है। इस प्रकार "बोल" में एक सार्थक हल भी प्रस्तुत करने का सुंदर प्रयास किया गया था। इसी क्रम में एक और फिल्म "सेविंग फेस" पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में बनाई गई है।

 
"सेविंग फेस" मूलतः डॉक्यूमेंटरी फिल्म है जिसमें पाकिस्तान में तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं की शोचनीय दशा को दिखाने का सफल प्रयास किया गया है। इस फिल्म को लघुवृत्तचित्र की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। यह सच है कि इस प्रकार के वृत्तचित्र भारत में इसके पहले बनाए जा चुके हैं किंतु भारत और पाकिस्तान के बुनियादी ढांचे में जो अंतर है वह इस पाकिस्तानी वृत्तचित्र को महत्वपूर्ण बना देता है। यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है किंतु वहां नहीं। अतः ऐसी कठोर दशा में जहां औरतों के जीवन के बारे में अधिक विचार विमर्श भी नहीं किया जाता हो, "सेविंग फेस" जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म मायने रखती है। इस फिल्म का निर्देशन शरमीन ओबेद चिनॉय और डेनियन जज ने किया है। शरमीन के अनुसार इस फिल्म के लिए ऑक्सर पुरस्कार मिलना पाकिस्तानी महिलाओं के संघर्ष की जीत है। शरमीन अफगानिस्तान में रह रही महिलाओं की स्थिति पर भी फिल्म बना चुकी हैं। पुरस्कार मिलने के बाद शरमीन ने कहा कि हमारे देश के विपरीत माहौल का रोज व रोज सामना करने वाली महिलाओं का साहस मुझे हमेशा से ही प्रभावित करता रहा था। इन महिलाओं को पाकिस्तान की सच्ची नायिका कहना अनुचित नहीं होगा।
                                                                                                                          
           
यह फिल्म उन औरतों की दशा पर आधारित है जो आए दिन तेजाबी हमले की शिकार होती रहती हैं। इस फिल्म में मुख्य रूप से पाकिस्तान मूल के ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन मोहम्मद जवाद के कार्यों को भी रेखांकित किया गया है जो तेजाब हमलों की शिकार महिलाओं की प्लास्टिक सर्जरी करते हैं। इस फिल्म में ब्रिटिश प्लास्टिक सर्जन डॉ. मोहम्मद जावाद की कहानी बताई गई है, जो पाकिस्तान लौटकर तेजाब के हमलों के शिकार लोगों की मदद करते हैं। दुर्भाग्यवश पाकिस्तान में हर वर्ष लगभग १०० लोग तेजाबी हमले के शिकार होते हैं जिनमें से अधिकतर महिलाएं और लड़कियां होती हैं। इन हमलों का शिकार लोगों के बीच काम करने वालों का कहना है कि यह आंकड़ा कहीं अधिक बड़ा हो सकता है क्योंकि बहुत से मामले चर्चा में भी नहीं आते हैं। इन हमलों का शिकार बनने वाली अधिकतर महिलाओं को उनके पति ही ऐसे नारकीय जीवन में धकेल देते हैं। प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा देना भी तेजाब हमलों के पीछे का दूसरा सबसे बड़ा कारण है।

      सेविंग फेस में एक ऐसी महिला की कहानी भी बताई गई है, जो तेजाब फेंकने वालों को सजा दिलवाने के लिए लड़ाई लड़ती है। शरमीन पहली पाकिस्तानी नागरिक हैं जिन्हें ऑक्सर के लिए नामांकित किया गया और जिन्होंने ऑक्सर का एक पुरस्कार अपने नाम किया। वस्तुतः पाकिस्तान की किसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म को ऑक्सर पुरस्कार मिलना उतनी बड़ी बात नहीं है जितनी कि पाकिस्तानी औरतों के जीवन की सच्चाई को दुनिया के सामने लाने का साहस करना और उस साहस को दुनिया द्वारा सहसा जाना। इस डॉक्यूमेंटरी फिल्म में भी संघर्ष करने वाली औरत के जुझारूपन और उसकी जीत पर बल दिया गया है जो इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करता है कि स्वयं पाकिस्तान का पढ़ा-लिखा, समझदार तबका समाज में सकारात्मक परिवर्तन देखना चाहता है और वह चाहता है कि इसके लिए स्वयं औरतें साहस जुटाएं और अपने अधिकारों की लड़ाई खुल कर लड़ें। "बोल" जैसी फीचर फिल्म और "सेविंग फेस" जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में वैश्विक स्तर पर सफलतापूर्वक जनमत जुटाती दिखाई पड़ती हैं।

(साभार- दैनिकनईदुनियामें 18.03.2012 को प्रकाशित मेरा लेख)

13 comments:

  1. सकारात्‍मक परिवर्तन होना ही चाहिए .. बहुत बढिया लेख है !!

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  2. शरमीन पहली पाकिस्तानी नागरिक हैं जिन्हें ऑक्सर के लिए नामांकित किया गया और जिन्होंने ऑक्सर का एक पुरस्कार अपने नाम किया।
    कृपया 'आस्कर' कर लें.कबीलाई शब्द कबिलियाई से ज्यादा चलता हुआ और प्रचलित है बाकी मैं तो विज्ञान का छात्र हूँ . .आप ज्यादा जानतीं हैं .

    पाकिस्तान की विस्थिति से वाकिफ करवाता महत्वपूर्ण आलेख .

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  3. -पडौसी बांग्ला देश में भी औरतों की स्थिति दयनीय है .कृपया इस पे भी लिखें .
    जुल्म की मुझ पे , इंतिहा कर दे ,

    मुझसा ,बे -जुबाँ, फिर कोई मिले ,न मिले .

    पूरी शताब्दी हो गई है नपुंसक ,

    पिछले दो सौ सालों से ,देख रही है ,बलात्कार .

    ये हाल हैं बांग्ला देश के चकला घर के.यहाँ यौन - कर्मी कैद हैं जो गोतेमाला के बंदी गृह को मात देतें हैं .यहाँ कम उम्र की मासूमों को मांसल दिखलाने के लिए ,पीन -स्तनी ,दर्शाने के लिए उन्हें दिया जा रहा है एक स्तीरोइड'औराड़ेक्सोंन '( Oradexon).

    यही वह स्तीरोइड है जो कुछ किसान गायों को मांसल बनाने के लिए देतें हैं ताकि प्रति किलोग्राम वजन उनसे ज्यादा मांस प्राप्त किया जा सके .

    वहां चाय बीडी सिगरेट की दुकानों पर यह स्तीरोइड आम मिल रहा है .क्षुधा वर्धक है यह स्तीरोइड जो गरीबी को ढक लेता है .जोबन से मदमाती खाते पीते घरों की दिखाता है इन बे -ज़ुबानों को .

    इसके सेवन के बाद ये गरीब लडकियां आराम से 10-15 ग्राहकों को निपटा लेतीं हैं .भले इनके दीर्घावधि असर सर्व ज्ञात हैं .भले अन्दर से टूटी हुई बे -जान ,बे -रूह हों , ये निस्सहाय आत्माएं .

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  4. Teenage brothels hold dark secreot‎
    The neighborhood of around a hundred of buildings with more than 800 small rooms is one of the 14 official brothels of Bangladesh, but are in essence a prison for around 900 sex workers. The young sex workers of this brothel must serve at least 10-15 customers each day. It is common practice among prostitutes of Kandapara brothel in Tangail to take steroids like Oradexon — a steroid used by farmers to fatten their cattle. The drug can be found in any tea or cigarette stall around the brothel. It increases their appetite, making them gain weight rapidly and giving the appearance that these poorly nourished teens are in fact healthy and older - attracting clients who prefer girls with "curves".Oradexon, they say, keeps them going, even though there are known risks associated with its long-term use. Here is a photo essay by Andrew Biraj that takes a look at the dark secret behind Bangladesh's "teenage" brothels.

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  5. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है।
    चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं....
    आपकी एक टिप्पिणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

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  6. हमेशा ककी तरह अच्छी जानकारी देता लेख ...

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  7. आंखें खोलने वाली रचना।

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  8. "बोल" जैसी फीचर फिल्म और "सेविंग फेस" जैसी डॉक्यूमेंटरी फिल्म पाकिस्तानी औरतों के पक्ष में वैश्विक स्तर पर सफलतापूर्वक जनमत जुटाती दिखाई पड़ती हैं......it is an eye opener.

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  9. Good write up. Bol and no one killed jessica like shod promoted and b given tax free catagory.some more on this matter awaited

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