Thursday, August 5, 2010

पिता – दो ग़ज़लें ...............- डॉ. (सुश्री) शरद सिंह

(1)
बचपन में ही छूट गई थी छांह पिता की.
याद नहीं, मैंने कब पकड़ी बांह पिता की.
आशीषें, स्नेह मिला जितना भी उनका
सिर माथे रख, मैंने पकड़ी राह पिता की.
मां का सूना माथा, मौन सिसकता अब तक
उनकी पीड़ा में सुनती हूं ‘आह!‘ पिता की.
रिश्ते की मज़बूत कड़ी जाने कब खोई
यद्यपि, सबको थी बेहद परवाह पिता की.
घर की चर्चाओं में सदा बसे रहते हैं
हर कुटुम्ब में होती है इक चाह पिता की.
(2)
छूटा ही क्यों साथ पिता का, पता नहीं.
रूठा कैसे भाग्य हमारा, पता नहीं.
उनका जाना, दुनिया भर के दुख लाया
मां ने कैसे हमें सम्हाला, पता नहीं.
चूड़ी टूटी, सेंदुर छूटा, पल भर में
मां ने कैसे धैर्य निभाया, पता नहीं.
सिर्फ़ पिता को खो कर, खोया इक सम्बल
अब तक जीवन कैसे बीता, पता नहीं.
पिता बिना परिवार अधूरा लगता है
वे होते तो होता कैसा, पता नहीं.
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2 comments:

  1. शरद जी, पिता पर आपकी ग़ज़लें अच्छी लगीं। और आपने अपना एक खूबसूरत ब्लॉग बनाया, जानकर सुखद लगा। अभिव्यक्ति के इस नये माध्यम से हर किसी को जुड़ना चाहिए। धीरे धीरे अपनी कहानियाँ भी ब्लॉग पर दें।
    मेरी शुभकामनाएं !
    सुभाष नीरव

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  2. पिता पर संवेदनात्मक रचना. आप का यह परिचय पा कर भी अच्छा लगा शरद जी.

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